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प्रथम कर्मग्रन्य
जैसे चित्रकार हाथी, घोड़े, सिंह, हिरन, मनुष्य आदि नाना प्रकार के अच्छे-बुरे रूप बनाता है । उसी प्रकार नामकर्म जीव के अनेक प्रकार के अच्छे-बुरे रूप बनाता है। इसीलिए नानकम के लिए चित्रकार की उपमा दी जाती है । नामकर्म का लक्षण यह है
नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवमति प्राप्त करके अच्छी-बुरी विविध पर्याय प्राप्त करता है अथवा जिस कर्म से आत्मा गति आदि नाना पर्यायों का अनुभव करे अथवा शरीर आदि बने, उसे नामकर्म कहते हैं ।' ___ अपेक्षाभेद से नामवार्म के बयालीस, तिरानवे, एकसौ तीन और सड़सठ भेद हैं।
अब आगे की दो माथाओं में नामकर्म की चौदह पिडप्रकृतियों और आठ प्रत्येकप्रकृतियों के नामों को कहते हैं।
गइजाइतणुऊवंगा बन्धणसंघायणाणि संघयणा । संठाणवण्णगन्धरसफास अणुपुटिव विहगगई ॥२४॥ पिडपडिसि चडवस, परघा उस्सास आयवुज्जोयं ।
अगुरुलहुतिस्थानिमणोयघायमिय अठ्ठपत्ते या ॥२५।। गाथार्थ-गति, जाति, शरीर, अंगोपांग, बंधन, संघातन, संहनन, संस्थान, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, आनुपूर्वी और बिहायो
विचित्र पर्यापनमयति-परिणयति यज्जीवं तमाम । जह वित्तयगे नितणी अणग हवाई पाइ रुवाई । सोहणमसोरणाई चोक्खमोक्रेति वर्णहि ।। तह नामनिहु कम्म अणेगरूवाई कूद जीवस्य । सोहणमसोहाइ शामिणवाई लोयस्स ||
-- स्थानांग २।४।१०५ टीका