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कर्मविपाक
भोगने योग्य है। परन्तु अनपवर्तनीय आयु सोपक्रम और निरुपक्रम दो प्रकार की होती है, अर्थात् उस आयु में अकालमृत्यु लाने वाले निमित्तों का संन्निधान होता भी है और नहीं भी होता है। किन्तु उक्त निमित्तों का संविधान होने पर भी अनपवर्तनीय आयु नियत काल-मर्यादा के पहले पूर्ण नहीं होती है । सारांश यह कि अपवर्तनीय आयु वाले प्राणियों को अकाल मरण के लिए शस्त्र आदि कोई न कोई निमित्त मिल ही जाता है, और अनपवर्तनीय आयु वालों को कैसा भी प्रबल निमित्त क्यों न मिले, लेकिन वे अकाल में नहीं मरते है।
आयुकर्म के चार भेद है-देवायु, मनुष्यायु, तियंचायु, और नरकायु ।'
देवायु-जिमके निमित्त से देवाति का जीकर गिताना मला है, उसे देवायु कहते हैं।
मनुष्यायु-जिसके उदय से मनुष्य गति में जन्म हो वह मनुष्यायु है ।
नियंचायु- जिसके उदय से तिर्यंचगति का जीवन व्यतीत करना पड़ता है, उसे तिर्यंचायु कहते हैं। ___ नरकायु-जिसके उदय से नरकगति का जीवन बिताना पड़ता है उसे नरकायु कहते हैं।
आयकर्म का निरूपण होने के अनन्तर अब क्रमप्राप्त नामकर्म के स्वरूप व भेद-प्रभेदों का कथन करते हैं
१. क) नेरइय तिरिक्खाउ मणुस्साउं तहेव य । देवा उय नउत्थं तु आउकाम चविई ।।
-उत्तराध्ययन, अ० ३३, मा० १२ (ख) प्रज्ञापना पन २३, उ० २। (ग) नारकर्षग्योनमानुष बन्नानि । -तरवार्थ अ० ८. सू. ११