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प्रथम कर्म ग्रन्थ
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सम्यक्त्वमोहनीय – जिसका उदय तात्त्विक रुचिका निमित्त होकर भी औपशमिक या क्षायिक भाव वाली तत्त्वरुचि का प्रतिबन्ध करता है, उसे सम्यक्त्वमोहनीय कहते हैं। यद्यपि यह कर्म शुद्ध होने के कारण तत्त्वरुविरूप स में व्याधान नहीं पहुँचाता परन्तु इसके कारण आत्मस्वभावरूप ओपशमिक और क्षायिक सम्यक्त्व नहीं हो पाता है और सूक्ष्म पदार्थों के विचारने में शंका हुआ करती है, जिससे सम्यक्त्व में मलीनता आ जाती है ।
मिश्रमोहनीय- इसका दूसरा नाम सम्यक्त्व - मिध्यात्वमोहनीय है । जिस कर्म के उदय से जीव को यथार्थ की रुचि या अरुचि न होकर दोलायमान स्थिति रहे, उसे मिश्रमोहनीय कहते हैं। इसके उदय से जीव को न तो तत्त्वों के प्रति रुचि होती है और न अतत्त्वों के प्रति अरुचि हो पाती है। इस रुचि को खटमिट्टी बस्तु के स्वाद के समान समझना चाहिए ।
मिथ्यात्वमोहनीय – जिसके उदय से जीव को तत्वों के यथार्थ स्वरूप की रुचि ही न हो, उसे मिथ्यात्वमोहनीय कहते हैं । इस कर्म के उदय से जीव सर्वज्ञत्रणीत मार्ग पर न चलकर उसके प्रतिकल मार्ग पर चलता है | सन्मार्ग से विमुख रहता है, जीव, अजीव आदि तत्त्वों के ऊपर श्रद्धा नहीं करता है और अपने हित-अहित का विचार करने में असमर्थ रहता है। हित को अहित और अहित को हित सम झता है 1
मिथ्यात्वमोहनीय के पुद्गल सर्वघाती रस वाले होते हैं। उस रस के एकस्थानक, द्विस्थानक, त्रिस्थानक और चतुःस्थानक - ये चार प्रकार होते हैं। जिनका स्पष्टीकरण यह हैं कि जैसे नीम या ईख का एक किलो रस लिया जाय तो उन उन के मूल स्वाभाविक रस को एकस्थानक कहेंगे। लेकिन जब इस एक किलो रस को स्वाद में