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प्रथम फर्मग्रन्थ
आस्रय-शुभाशुभ कर्मों के आगमन द्वार को आस्रव कहते हैं । आस्रव के दो भेद हैं - द्रव्यात्रव, भावास्रव । शुभ-अशुभ परिणामों को उत्पन्न करने वालो अथवा शुभ-अशुभ परिणामों से स्वयं उत्पन्न होने बाली प्रवृत्तियों को द्रव्यास्त्रव और कर्मों के आने के द्वार रूप जीव के शुभ-अशुभ परिणामों को भावास्रव कहते हैं । आस्रव तत्त्व के बयालीस भेद हैं। ____संबर- आस्रव के निरोध को संवर कहते हैं। आस्रव के बयालीस भेद हैं । उनका जितने-जितने अंशों में निरोध होगा, उतने-उतने अंशों में संबर कहलायेगा । यह संवर (आस्रव का चिरोध) गुरित, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परिषहजय और चारित्न आदि से होता है ।' संवर के दो भेद हैं-भावसंवर और द्रव्यसंबर । आते हुए नये कर्मों को रोकने वाले आत्मा के परिणाम को भावसंबर और कर्मपुद्गलों के आगमन के रुक जाने को द्रव्यसंवर कहते हैं । संबर के सत्तावन भेद हैं। ___ निर्जरा-आत्मा के साथ नीर-क्षीर की तरह आपस में मिले हुए कर्मपुद्गलों के एकदश क्षय होने को निर्जरा कहते हैं । निर्जरा के दो प्रकार हैं-(१) द्रव्यनिर्जरा, (२) भावनिर्जरा । आत्मप्रदेशों से कर्मों का एकदेश पृथक् होना व्यनिर्जरा और द्रव्यनिर्जरा के जनक अथवा द्रव्यनिर्जरा-जन्य आत्मा के शुद्ध परिणाम को भावनिर्जरा कहते हैं। निर्जरा के बारह भेद हैं।
बंध-आस्रव द्वारा आये हए कर्म पुद्गलों का आत्मा के साथ नीर-क्षीर की तरह आपस में मिलना बंध कहलाता है । राग-द्वेष आदि कषायों और योग प्रवृत्ति के द्वारा संसारी जीव कर्मयोग्य पुद्गलों को १. पंचसमिझो तिगुत्तो असाओ जिइंदिओ।
अगारको य निस्सललो जीवो हवाइ अणःसवो ।। - उसराध्ययन, ३३०