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कर्मविपाक
हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा के भाव पैदा होते हैं, उन्हें क्रमशः नोकषायमोहनीय के हास्यादि जुगुप्सा पर्यन्त भेद समझना चाहिए। जिस नाम के उद से पुरुष श्री और पुरुष-स्त्री दोनों से रमण करने की मैथुनेच्छा उत्पन्न होती है, जैसे क्रमशः स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद कहते हैं । इन तीनों वेदों के अभिलाषा भाव क्रमशः करीषाग्नि, तृणाग्नि और नगरदाह के समान होते हैं ।
विशेष- इन दो गाथाओं में नोकषायमोहनीय के नौ भेदों का कथन किया गया है। जिनके नाम इस प्रकार हैं
(१) हास्य, (२) रति, (३) अरति, (४) शोक, (५) भय, (६) जुगुप्सा, (७) स्त्रीवेद, (८) पुरुषवेद और (2) नपुंसकवेद ।' इन नामों के आगे 'मोहनीय कर्म' शब्द जोड़ लेना चाहिए। उक्त नौ भेदों के लक्षण इस प्रकार हैं---
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हास्य - जिस कर्म के उदय से कारणवश अर्थात् भाँड़ आदि की चेष्टा देखकर अथवा बिना कारण के हंसी आती है, उसे हास्यमोहनीय कर्म कहते हैं. अर्थात हास्य की उत्पादक प्रकृतिवाला कर्म हास्य-मोहनीय कर्म कहलाता है ।
रति जिस कर्म के उदय से सकारण या अकारण पदार्थों में रागहो, उसे रति- मोहनीय कर्म कहते हैं ।
अरति जिस कर्म के उदय से कारणवश या बिना कारण के पदार्थों से अप्रीति-द्वेष होता है, उसे अरतिमोहनीय कर्म कहते हैं ।
नोमस वेयगिज्जेणं मंते ! कम्मे कतिविधे पणते ? गोममा ! नवविषे 1. प्रणेते तं जहा -- इत्योबेय वेयणिज्जे पुरिसके० नपुंसमवे० हासे रती अरती : -- प्रज्ञापना० कर्मबन्ध पद २३, उ०२
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म सोगे दुछा।