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प्रथम कर्मग्रन्थ
संज्वलनकषाय चतुष्क और नो नोकषाय के अतिरिक्त चारित्रमोहनीय की शेष अनन्तानुबन्धी क्रोधादि बारह प्रकृतियाँ सर्वघाती हैं । इस प्रकार मोहनीय कर्म का निरूपण करने के अनन्तर आयु और नाम कर्म के स्वरूप आदि का वर्णन करते हैं ।
सुरनरतिरिभराऊ हडिसरिसं नामकम्म चित्तिसमं । बायालतिनवविहं तिउत्तरसभं च सतट्ठी ॥२३॥
गाथार्थ - देव, मनुष्य, तिर्यच और नारक के भेद से आयुकर्म चार प्रकार का है और इसका स्वभाव हड़ि (खोड़ा, बेड़ी) के समान है । नामकर्म का स्वभाव चित्रकार के सदृश है और उसके बयालीस तिरानवे, एकसौ तीन और सड़सठ भेद होते हैं ।
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विशेषार्थ - गाथा में आयुकर्म और नामकर्म का स्वभाव तथा उन उन कर्मों के अवान्तर भेदों की संख्या बतलाई है। उनमें से पहले आयुकर्म का वर्णन करते हैं।
आयुकर्म - जिस कर्म के उदय मे जीव देव, मनुष्य तिर्यच और नारक रूप से जीता है और उसके क्षय होने पर उन-उन रूपों का त्याग करता है यानी मर जाता है, उसे आयुकर्म कहते हैं ।"
आयुकर्म का स्वभाव कारागृह के समान है । जैसे अपराधी अपराध के अनुसार अमुक काल तक कारागृह में डाला जाता है और अपराधी उससे छुटकारा पाने की इच्छा भी करता है, किन्तु अवधि पूरी हुए बिना निकल नहीं पाता है, उसे निश्चित समय तक वहाँ रहना पड़ता है । वैसे ही आयुकर्म के कारण जीव को निश्चित अवधि
१. यद्भावाभावयोर्जीवित मरणं तदात्रुः ।
- तत्त्वार्थराजनात्तिक १०१२