Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्म विपाक
की इच्छा हो, उसे स्त्रीवेद कहते हैं। इसकी अभिलाषा के भाव करीषाग्नि के समान होते हैं । करीष माने सूखा गोवर, उपला, कंडा, छाना, ठेपली। जैसे—उपले में सुलगी हुई आग जैसे-जैसे जलाई जाए वैसे-वैसे बढ़ती है, वैसे ही पुरुष के करस्पर्श आदि व्यापार से स्त्री की अभिलाषा बढ़ती है ।
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पुरुषद-जिसके उदय से पुरुष को स्त्री के साथ रमण करने की इच्छा हो, उसे पुरुषवेद कहते हैं । इस वेद वाले की अभिलाषा में दृष्टान्त तृणाग्नि का दिया है। जैसे तृण की अग्नि शीघ्र जलती है और शीघ्र बुझती है, उसी प्रकार पुरुष की मैथुन की अभिलाषा शीघ्र उत्तेजित होकर शान्त हो जाती है।
नपुंसक वेद-जिसके उदय से स्त्री और पुरुष दोनों के साथ रमण करने की इच्छा हो, उसे नपुंसकवेद कहते हैं। इसकी वासना के लिए नगरदाह का दृष्टान्त दिया गया है। जैसे नगर में आग लगे तो वह कई दिन तक नगर को जलाती है और उसको बुझाने में बहुत दिन लगते हैं। इसी प्रकार नपुंसकवेद के उदय से उत्पन्न अभिलाषा चिरकाल तक निवृत्त नहीं होती और विषय सेवन से तृप्ति भी नहीं होती । इस प्रकार नोकषायमोहनीय के नौ भेदों का कथन पूर्ण हुआ ।"
१. उत्तराध्ययन सूत्र ध्ययन ३३ गाथा ११ में 'सत्तविहं नवविहं वा कम्मं गोकसायजं - नोकषाय मोहनीय के मायनो भेदों का जो कन है, उसका कारण यह है कि जब वेद के स्त्री, पुरुष और नपुंसक वेद में तीन भेद नहीं करके सामान्य से वेद को गिनते हैं तो हास्यादि छह और वेद ये सात भेद हो जाते हैं और बेद के स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद ये तीन भेद किये जाते हैं तो नो भेद होते हैं। साधारणतया नोकषाय मोहनीय के नौ भेद प्रसिद्ध हैं । अतः यहाँ भी भेदों के नाम गिनाये गये हैं और विवेचन किया है ।