________________
प्रथम कर्मग्रन्थ
शोक - कारणवश या बिना कारण ही जिस कर्म के उदय से शोक हो, उसे शोक - मोहनीय कर्म कहते हैं ।
६७
भाय - जिस कर्म के उदय से कारणवशात् या बिना कारण भय हो- डर पैदा हो, भयशीलता उत्पन्न हो, उसे भयमोहनीय कर्म कहते हैं ।
भय के सात प्रकार हैं
(१) इहलोक भय, (२) परलोक भय, (३) आदान भय (चोर, डाकू आदि से भय होना), (४) अकस्मात भय ( आकस्मिक दुर्घटनाजन्य भय), (4) विकास (६) मृत्यु और () भय । जुगुप्सा - जिस कर्म के उदय से कारण या बिना कारण के ही बीभत्स - धूणाजनक पदार्थों में देखकर घृणा पैदा होती है, उसे जुगुप्सामोहनीय कर्म कहते हैं |
मैथुन सेवन करने की अभिलाषा को वेद कहते हैं । मैथुनेच्छा की पूर्ति के योग्य नाम कर्म के उदय से प्रगट बाह्य चिन्ह विशेष को द्रव्यवेद और तदनुरूप अभिलाषा को भाववेद कहते हैं । वेद के तीन भेद हैं—स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसक वेद । इनके लक्षण और भाव निम्न प्रकार हैं
स्त्रीवेद - जिस कर्म के उदय में स्त्री को पुरुष के साथ रमण करने
१. सत्त भयाणा पण्णा तं जहा - इहलोग मए, परलोगभए, आदाण भए, अम्हा पणए मरणभए, अखिलोगभए । - स्थानांग ७।५४६
घृणा और निन्दा अर्थ लेकिन जब निन्दा-रूप
२. कुच्छा का संस्कृत में कुत्ता रूप बनता है। इसके
होते हैं। वृणा का आशय यहाँ स्पष्ट किया है। अर्थ लिया जाए तथ अपने दोष छिपाने और दूसरे के दोष प्रकट करने रूप आशय समझ लेना चाहिए ।