Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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प्रथम कर्मग्रन्थ
मीसा न रागदोसो जिणधम्मे अंतमुहजहा अन्ते । नालियर दोवमगुणो भिच्छं जिणधम्मविवरीयं ॥ १६ ॥ गाथार्थ - जैसे नालिकेर द्वीप में उत्पन्न मनुष्य को अन्न पर राग-द्वेष नहीं होता है, वैसे ही मिश्रमोहनीय कर्म के कारण जिनधर्म पर भी राग द्वेष नहीं होता है । इसका समय अन्तमुहूर्त मात्र है। मिथ्यात्वमोहनीय के उदय मे जीव जिनोत धर्म से विपरीत श्रद्धान करने वाला होता है |
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विशेषार्थ - गाथा में मिश्रमोहनीय (सम्यक्त्व मिथ्यात्व मोहनीय) और मिथ्यात्व - मोहनीय कर्म के उदय से होने वाले आत्मा के परिणामों व उनके स्वरूप को बतलाया गया है ।
जैसे नालिकेर द्वीप ( जहाँ नारियल के सिवाय दूसरे खाद्यान्न पैदा नहीं होते हैं) में उत्पन्न मनुष्य ने अन्न के विषय में कुछ न सुना हो और न देखा हो तो उसे अश के बारे में न तो रुचि - राग होता है और न अरुचि - द्वेष होता है, किन्तु तटस्थ रहता है। इसी प्रकार जब मिश्रमोहनीय कर्म का उदय होता है, तब जीव को बीतरागप्ररूपित धर्म पर रुचि अरुचि ( राग-द्वेष ) नहीं होती है। अर्थात् वीतराम ने जो कुछ कहा है, वह सत्य है, ऐसी दृढ श्रद्धा नहीं होती है और वह असत्य है, अविश्वसनीय है, इस प्रकार अरुचिरूप द्वेष भी नहीं होता है । वह वीतरागी और सरागी एवं उनके कथन को समान रूप से ग्राह्य मानता है । मित्रमोहनीय का उदयकाल अन्तर्मुहूर्त है ।
मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के उदय से आत्मा को जीवादि तत्वों के स्वरूप, लक्षण और जिनप्ररूपित धर्म के प्रति श्रद्धा नहीं होती है। जैसे रोगी को पृथ्य चीजें अच्छी नहीं लगती हैं और कुपथ्य चीजें अच्छी लगती हैं, वैसे ही मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के उदय से वीतरागप्ररूपित