Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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मनाथ
नोकषायों को कषायरूप प्राप्त करने में कषायों का सहकार आवश्यक है और उनके संसर्ग से ही नोकषायों की अभिव्यक्ति होती है। वैसे वे निष्क्रिय-सी हैं। केवल नोकषाय प्रधान नहीं हैं।
इस प्रकार चारित्रमोहनीय के कषाय और नोकषाय मोहनीय इन दो भेदों के उत्तरभेदों का संक्षेप में संकेत करने के बाद आगे की गाथा में कषायमोहनीय के अनन्तानुबन्धी आदि चारों प्रकारों के सम्बन्ध में विशेष वर्णन करते हैं। जाजीववरिसचउमासपक्खगा नरयतिरिय नर अमरा ।
सम्माणसविरईअहखायचरित्तघायकरा ॥१८॥ गाथार्य-पूर्वोक्त अनन्तानुबन्धी आदि चारों प्रकार की कषायों की कालमर्यादा क्रमश: जीवनपर्यन्त, एक वर्ष, चार मास एवं पन्द्रह दिन (एक पक्ष) की है और वे क्रमशः नरक, तिर्यंच, मनुष्य तथा देवगति के बन्ध कारण हैं तथा सम्यक्त्व, देशविरति, सर्वविरति और यथास्यातचारित्र का क्रमश: घात करती हैं। विशेषार्थ-गाथा में अनन्तानुबन्धी आदि कषायमोहनीय के चारों प्रकारों की काल मर्यादा, उनसे बंधने वाली गतियों एवं आत्मा के घात होने वाले गुणों का नाम-निर्देश किया है। जिनका विशेष स्पष्टीकरण इस प्रकार है
अनन्तानुबन्धी कषाय जीवनपर्यन्त रहती है, अर्थात् यह कषाय जन्मजन्मान्तर तक भी विद्यमान रहती है। इसके सद्भाव में नरक गति के योग्य कर्मों का बन्ध होता है और यह आत्मा के सम्यक्त्व गुण का घात करने वाली है।।
अप्रत्याख्यानावरण कषाय की कालमर्यादा एक वर्ष है और इसके