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कर्मविपाक
उदय से तिर्यंचगति का बन्ध होता है। इसके कारण जीव देशविरति ( श्रावक चारित्र) को ग्रहण करने में असमर्थ रहता है।
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प्रत्यारूपण कषायी
से जीव के मनुष्यगति के योग्य कर्मों का के सर्वविरति ( श्रमणधर्म चारित्र का विरति चारित्र नहीं हो पाता है ।
चार माह है। इसके उदय बन्ध होता है और यह जीव घात करती है, अर्थात् सर्व
संज्वलन कषाय की कालमर्यादा एक पक्ष की है। इस प्रकार की कषायों की स्थिति में जोव को देवगति के योग्य कर्मों का बन्ध होता है तथा यथाख्यातचारित्र नहीं हो पाता है ।
अनन्तानुबन्धी आदि कषायों का समग्रमर्यादा विषयक पूर्वोक्त व्यवहारनय की अपेक्षा से समझना चाहिए। क्योंकि बाहुबलि आदि को संज्वलन कषाय एक वर्ष तक रही और प्रसन्नचन्द्र राजर्षि को अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय एक अन्तर्मुहूर्त तक के लिए ही हुआ । इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय रहते हुए भी कुछ मिथ्यादृष्टियों के नवयं वैयकों में उत्पन्न होने का वर्णन देखने को मिलता है।
अनन्तानुबन्धी आदि कषायों के चार प्रकारों की कालमर्यादा आदि बतलाने के अनन्तर अब दृष्टान्त द्वारा उनके विशेष स्वरूप का कथन करते हैं ।
जल रेणु पुढविपटराईसरिसो चउव्जिहो कोहो । तिणिसलया कट्ट्ठट्ठिय सेल त्थं भोवमो माणो ||१६|| मायाबले हिगोमूर्त्तिमिदसिंगघणवं सिमूलसमा लोहो हलिद्दवंजणकद्दमकि मिरागस माणो गाथार्थ - क्रोध- जल, रेणु, पृथ्वी और पर्वतराजि के समान,
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