Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
प्रथम कर्मग्रन्थ
मान-क्षेत्रलता, काष्ठ, अस्थि और शैल-पत्थर-स्तम्भ के समान, माया--अबलेखिका, गोमूत्रिका, भेड़ के सींग, पनवंशी के मूल के समान और लोभ-हरिद्वारंग, दीपक के काजल के रंग, कीचड़ के रंग एवं किरमिची रंग के समान चारचार प्रकार के समझने चाहिए। . . . . . . . . विशेषार्ष-इन दो गाथाओं में अनातानुबंधी आदि चारों प्रकार : के क्रोध, मान, माया और लोभ से युक्त आत्मा के परिणामों को दृष्टान्तों के द्वारा समझाया गया है। इनमें क्रमशः पहले से संज्वलन,' दूसरे से प्रत्याख्यानावरण, तीसरे से अप्रत्याख्यानावरण और चौथे से अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ कषाय के प्रतीकों को गिनाया है, जैसे
संज्वलन क्रोध जल में खींची गई रेखा सदृश, प्रत्याख्यानादरण क्रोष धूलि में खींची गई रेखा सदृश, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध पृथ्वी में खींची गई रेखा के समान और अनन्तानुबन्धी क्रोध पर्वत में आई दरार के समान होता है । इसी प्रकार संज्वलन आदि के मान, माया, लोभ के लिए दृष्टान्त के प्रतीकों का क्रमशः सम्बन्ध जोड़ लेना चाहिए । जिनका विवेचन इस प्रकार है। __संज्वलन क्रोध-जल में खींची जाने वाली रेखा के समान यह क्रोध तत्काल शान्त हो जाता है ।
प्रत्याख्यानावरण क्रोध-जैसे अलि में खींची गई रेखा हवा के द्वारा कुछ समय में भर जाती है वैसे ही इस प्रकार का क्रोध कुछ उपाय से शान्त हो जाता है। ____ अप्रत्याख्यानावरण क्रोध-सूखी मिट्टी में आई दरार जैसे पानी के संयोग से फिर भर जाती है, वैसे ही इस प्रकार के क्रोध की शान्ति कुछ परिश्रम और प्रयल द्वारा हो जाती है ।