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कर्मविपाक
हो उसे कषाय कहते हैं। कषायमोहनीय के सोलह भेद हैं, जिनका संक्षेप में निरूपण करते हैं ।
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मूल रूप में कषाय के क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार भेद हैं । इन चारों के लक्षण इस प्रकार हैं
क्रोध- समभाव को भूलकर आक्रोश में भर जाना। दूसरे पर रोष करना क्रोध है ।
मान - गर्व, अभिमान, झूठे आत्मदर्शन को मान कहते हैं
माया -- कपटभाव, अर्थात् विचार और प्रवृत्ति में एकरूपता के अभाव को माया कहते हैं ।
लोभ- ममता परिणामों को लोभ कहते हैं ।
इन कषायों के तीनतम, नीलरतीत और मन्द स्थिति के कारण चार-चार प्रकार हो जाते हैं, जो क्रमशः अनन्तानुबन्धी (तीव्रतम स्थिति), अप्रत्याख्यानावरण (तीव्रतर स्थिति), प्रत्याख्यत्नावरण ( तीव्र स्थिति) तथा संज्वलन (मंद स्थिति) के नाम से कहे जाते हैं । इनके लक्षण ये हैं
अनन्तानुबंधी - जो जीव के सम्यक्त्व गुण का घात करके अनन्त काल तक संसार में परिभ्रमण करावे, उस कषाय को अनन्तानुबन्धी कहते हैं । *
अप्रत्याख्यानावरण - जो कषाय आत्मा के देशविरतिगुण चारित्र
१ कम्मं कसो भवो वा कसमातो सिं कमाया तो । कसमाययंति व जतो गमयति कसं कायत्ति ||
- विशेषावश्यक श्राव्य गान १२२७ २. अनन्तानुबंधी- सम्यग्दर्शनोपघाती । तस्योद्रयाद्धि सम्यग्दर्शनं नोद्यते । पूर्वोत्पमपि च प्रतिपतति । -- तत्त्वार्थ सूत्र ८१० शय्य