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प्रथम कर्मग्रन्थ
सम्यक्त्व, वेदकसम्यक्त्व, सास्वादनसम्यक्त्व, दीपकसम्यक्त्व इत्यादि भेद होते हैं । संक्षेप में इनके लक्षण इस प्रकार हैं
व्यवहारसम्यक्त्व-कुगुरु, कुदेव और कुमार्ग को त्यागकर सुगुरु, सुदेव और सुमार्ग को स्वीकार करना, उनकी श्रद्धा करना व्यवहार सम्यक्त्व कहलाता है।
निश्चयसम्यक्त्व - जीवादि तत्त्वों का यथारूप से श्रद्धान करना निश्चयसम्यक्त्व है।' यह आत्मा का वह परिणाम है, जिसके होने पर ज्ञान विशुद्ध होता है।
क्षायिकसम्य'- मिथ्यात्व, मि और लन्यक्त्यमोहनीद--दर्शन मोहनीय की इन तीन प्रकृतियों के क्षय होने पर आत्मा में जो परिणाम-विशेष होता है उसे क्षायिकसम्यक्त्व कहते हैं । ____ औपशामिकसम्यक्त्व- दर्शनमोहनीय की पूर्वोक्त तीन प्रकृतियों के उपशम से आत्मा में होने वाले परिणाम-विशेष को औपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं।
क्षयोपशमिकसम्यक्त्व-मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के क्षय तथा उपशम से और सम्यक्त्व मोहनीय के उदय से आत्मा में होने वाले परिणाम को क्षायोपशमिकसम्यक्त्व कहते हैं।
उदय में आये हुए मिथ्यात्व के पुद्गलों का क्षय तथा जो उदय को प्राप्त नहीं हुए उन पुद्गलों का उपशम इस प्रकार मिथ्यात्वमोहनीय काशयोपशम होता है । यहाँ मिथ्यात्व का उदय प्रदेशोदय की
१. (क) तत्त्वावद्धानं सम्यग्दर्शनम् । -तत्यार्घसूत्र अ० १. सू०२ (ख) मयत्थेणाभियदा जीवाजीया य पुणपावं म ।
मासत्रसंवाणिज्जरबंधो मोक्लो य सम्मतं ।। -समयसार १३