Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्मविपाक
ग्रहण करता रहता है ।' यह क्रम अनादि मे चालू है कि राग, द्वेष, कषाय आदि के सम्बन्ध से जीव कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है और उन कर्मपुद्गलों के सम्बन्ध से कषायवान होता है। योग और कषाय कर्मबन्ध के कारण हैं। बंध के दो प्रकार हैं-भावबंध और द्रव्यबंध । आत्मा के जिन परिणामों से कर्मबंध होता है अथवा कर्मबन्ध से उत्पन्न होने वाले आत्मा के परिणामों को भावबंध कहते हैं और कर्मपुद्गलों का जीव प्रदेशों के साथ नीर-क्षीर की तरह आपस में मिलना द्रव्यबन्ध कहलाता है । बन्ध के चार भेद हैं। ___ मोक्ष-सम्पूर्ण कर्मों के क्षय होने को मोक्ष कहते हैं। मोक्ष के दो प्रकार हैं-द्रव्यमोक्ष और भावमोक्ष । सम्पूर्ण कर्मपुद्गलों का आत्मप्रदेशों से पृथक् हो जाना द्रव्यमोक्ष और द्रव्यमोक्षजनक अथवा द्रव्यमोक्षजन्य आत्मा के विशुद्ध परिणामों को भावमोक्ष कहा जाता है । मोक्ष के नौ एवं पन्द्रह भेद हैं ।'
उक्त नवतत्त्वों में से जीव, अजीव और बन्ध ज्ञेय हैं। पुण्य, पाप और आस्रव हेय हैं और संवर, निर्जरा एवं मोक्ष उपादेय हैं। सम्यक्त्व के मेव
पूर्वोक्त जीयादि नवतत्त्वों के श्रद्धान करने को सम्पनत्व कहते हैं। सम्यक्त्व के कई भेद हैं। किसी अपेक्षा से सम्यक्त्व दो प्रकार का है-(१) व्यवहारसम्यक्त्व और (२) निश्चयसम्यक्त्व । किसी अपेक्षा से क्षायिकसम्यक्त्व, औपशमिकसम्यक्त्व, क्षायोपशमिक
१. परिणदि जदा अप्पा, सुहम्मि असुहम्मि रागदोसजुदो।
तं पविलदि कम्मरयं, णाणावरणादिमावेहिं ॥ प्रव० स० २, नब तत्त्व का विशेष वर्णन देवेन्द्र रिरचित स्वोपजटीका गाथा १५, पष्ठ
३० से ३२ में देखिए।