Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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प्रथम कर्मग्रन्य द्विस्थानक रस होता है। इन तीनों प्रकारों में मिथ्यात्वमोहनीय सर्वघाती है और शेष दो-- सम्यक्त्वमोहनीय, मित्रमोहनीय देशघाती हैं। इस प्रकार दर्शनमोहनीय के तीन प्रकारों को बतलाकर अब आगे की गाथा में सम्यक्त्वमोलीय का स्वरूप कहते हैं । जियजय पुण्णपावासव संवरबन्धमुक्खनिज्जरणा ।
जेणं सद्दहाइयं तयं सम्म खइगाहबहुमेयं ॥५॥ गाथार्थ-जिस कम से जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रब, संवर, बंध, मोक्ष और गिरा इन नकारत्रों पर भाव वक्षा करता है, वह सम्यक्त्वमोहनीय है। उसके क्षायिक आदि बहुत से भेद होते हैं।
विशेषार्थ-जिस कर्म के उदय से आत्मा को जीवादि नवतत्त्वों पर श्रद्धा होती है, उसमें सम्यक्त्वमोहनीय कहते हैं। ऐसा कहढे में अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार चश्मा आँखों का आच्छादक होने पर भी देखने में रुकावट नहीं डालता, उसी प्रकार सम्यक्त्वमोहनीय कर्म आवरण रूप होने पर भी आत्मा को तत्त्वार्थ-श्रद्धान करने में व्याघात नहीं पहुंचाता है।
नवतत्त्व नंब तत्त्वों के नाम ये हैं-जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध, और मोक्ष ।' जिनके संक्षेप में लक्षण इस प्रकार हैं
जीव-जो प्राणों को धारण करे उसे जीव कहते हैं । प्राण के दो भेद हैं-द्रव्यप्राण और भावप्राण। इनमें से द्रव्यप्राण के पांच इन्द्रिय (स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्षु और धोत्र), तीन बल (काय, वचन, मन), १. नव सम्भावपयत्या पणते, तं जहा -जीवा अजीवा पुणा पावो आसबी
संवरो निज्जरा बंधो मारखो। - स्थानांग, स्थान ६, सब ६६५