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कर्म विपाक तीव्रता लाने के लिए अग्नि ग तपाकर आधा कर लिया जाय तो द्विस्थानक और दो भाग कम करके एक भाग शेष रखें तो त्रिस्थानक और जब एक-चतुर्थांश भाग ही शेष रखा जाए तो चतुःस्थानक कहेंगे ।
जनसाधारण की भाषा में चतु:स्थानक को चौथाई, त्रिस्थानक को तिहाई और द्विस्थानक को आधा भाग और जो स्वाभाविक है, उसे एकस्थानक कह सकते हैं।
इसी प्रकार शुभ-अशुभ फल देने की कर्म की तीनतम शक्ति को चतुःस्थानक, तीव्रतर शक्ति को त्रिस्थानक, तीव्र शक्ति को द्विस्थानक और मंद शक्ति को एकस्थानक समझना चाहिए । इनमें से द्विस्थानक, त्रिस्थानक और चतुःस्थानक रस सर्वघाती हैं और मिथ्यात्वमोहनीय में चतुःस्थानक, त्रिस्थानक और द्विस्थानक -- ये तीनों प्रकार की सर्वघाती रस-शक्ति होती है। मिश्रमोहनीय (सम्बग्मिध्यात्व-मोहनीय) में विस्थानक रस-शक्ति और मभ्यक्त्वमोहनीय में एकस्थानक रसशक्ति होती है।
जैसे कोद्रब (कोदों-.-एक प्रकार का अन्न) के खाने में नशा होता है, परन्तु जब उन कोदों का छिलका निकाल दिया जाय और छाछ आदि से धोकर शोध लिया जाए तो उम मादक शक्ति बहुत न्यून रह जाती है। इसी प्रकार कोदों के समान हिताहित की परीक्षा करने में जीव को विफल बनाने वाले मिथ्यात्वमोहनीय के पुद्गल होते हैं। उनमें सर्वधाती रस होता है लेकिन जब जीव अपने विशुद्ध परिणामों के बल से उन कर्मपुद्गलों की सर्वघाती रस-पाक्ति को घटा देता है
और सिर्फ एकस्थानक शेष रह जाता है, तब इस एकस्थानक शक्ति वाले मिथ्यात्वमोहनीय के पुद्गलों को सम्यक्त्वमोहनीय कहा जाता है और कुछ भाग शुद्ध एवं कुछ भाग अशुद्ध ऐगे कोदों के समान मिश्रमोहनीय के कर्मपुद्गलों को समझना चाहिए। इन कर्मपुद्गलों में