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कर्मविपाक
सामान्य उपयोग रूप दर्शन को ग्रहण नहीं करना चाहिए । वह इस दर्शन से भिन्न है । अतः जो पदार्थ जैसा है, उसे वैसा ही समझना दर्शन है, अर्थात् तत्त्वार्थ-श्रद्धा को दर्शन कहते हैं । यह आत्मा का गुण है । इसको घात करने वाले-आवत करने वाले कर्म को दर्शनमोहनीय कहते हैं।
चारित्रमोहनीय - आत्मा के स्वभाव की प्राप्ति या उसमें रमण करना चारित्र है । यह आत्मा का गुण है । आत्मा के इस चारित्रगुण को घात करने वाले कर्म को चारित्रमोहनीय कहते हैं।
इस प्रकार मोहनीय कर्म के मुख्य भेद बतलाने के पश्चात आगे की गाथा में दर्शनमोहनीय का विशेष कथन करते हैं।
वंसणमोहं तिविहं सम्म मोसं तहेव मिच्छत्तं ।
सुद्ध अद्धावसुद्ध अविसुद्ध तं हबई कमसो ॥१४॥ गाथार्थ-दर्शनमोहनीय कर्म सम्यक्त्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय, मिथ्यात्वमोहनीय के भेद से तीन प्रकार का होता है। इन तीनों प्रकारों में क्रमशः सम्यक्त्वमोहनीय शुद्ध, मिश्रमोहनीय अर्द्ध शुद्ध और मिथ्यात्वमोहनीय अशुद्ध होता है।
विशेषार्थ-दर्शनमोहनीयकर्म बन्ध की अपेक्षा मिथ्यात्वरूप ही हैं, किन्तु उदय और सत्ता की अपेक्षा से आत्मपरिणामों के द्वारा उसके सम्यक्त्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय (सम्यमिथ्यात्व-मोहनीय) और मिथ्यात्वमोहनीय ये तीन भेद हो जाते हैं। इनके लक्षण क्रमशः इस प्रकार हैं
१. (क) दंसणमोहणिज्ज भन्ते ! क्रम्म कतिधि घे ण्णरो ? गोयमा ! तिषिहे
पण्णत्ते, तं जहा-सम्मन्न वेयणिज्जे, मिच्छत्तबेगणिज्ज. सम्मामिच्छतवेयणिज्जे।
-प्रज्ञापना, कर्मबध पद २३. स. २ (ख) उत्तराध्ययन सूत्र, अ० ३३, गाथा ६