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फारविपाक
दर्शन मोहनीय एवं चारित्रमोहनीय की अपेक्षा से दो प्रकार का होता है ।
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विशेषार्थ-चतुर्गतिरूप संसार में परिभ्रमण करने वाले जीव वेदनीय कर्म के उदय से इन्द्रियविषयजन्य सुख-दुःख का अनुभव करते रहते हैं। वे न तो एकान्त सुख ही सुख का और न दुःख ही दुःख का वेदन करते हैं। उनका सुख, दुःख से मिश्रित होता है और सुख के बाद दुःख एवं दुःख के अनन्तर सुख का क्रम चलता रहता है। फिर भी किन गतियों में सातावेदनीय का और किन गतियों में असातावेदनीय का विशेषरूप से उदय होने का कथन गाथा के पूर्वार्द्ध में किया गया है. कि देवों और मनुष्यों को प्रायः सातावेदनीय कर्म का उदय रहता है । यहाँ प्रायः शब्द से यह सूचित किया गया है कि उनके सातावेदनीय के अलावा असातावेदनीय का भी उदय हुआ करता है । चाहे वह उदय अल्पांश में हो हो, परन्तु उसकी संभावना है ।
जैसे बहुत से देवों के देवगति से च्युत होने के समय, अपनी ऋद्धि की अपेक्षा अन्य देवों की विशाल ऋद्धि को देखने से ईर्ष्या, मात्सर्य आदि का प्रादुर्भाव होता है, तब तथा अन्यान्य अवसरों पर भी असातावेदनीय कर्म का उदय हुआ करता है । इसी प्रकार मनुष्यों के बारे में समझ लेना चाहिए अथवा गर्भावस्था में एवं स्त्री-पुत्र आदि प्रियजनों के बियोग, धन-सम्पत्ति के नाश आदि कारणों से भी उनको दुःख हुआ करता है।
तियंचों और नारक जीवों को प्रायः असातावेदनीय कर्म का उदय रहता है । यहाँ प्रायः शब्द से यह सूचित किया गया है कि उन्हें सातावेदनीय का भी उदय हुआ करता है, किन्तु ऐसे अवसर कम ही होते हैं। जैसे तिर्यों में किन्हीं - किन्हीं हाथी, घोड़े, कुत्ते, आदि जीवों