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प्रथम कर्मग्रन्थ
का बड़े लाड़-प्यार से लालन-पालन किया जाता है। इसी प्रकार नारक जीवों में भी तीर्थकरों के जन्म आदि कल्याणकों के समय कुछ सुख का अनुभव हुआ करता है।
देवों को सांसारिक सुखों का विशेष अनुभव होता है और मनुष्यों को उनमे कम । इसी प्रकार निगोदिया जीवों और नारकों को दुःख का विशेष अनुभव होता है और उनकी अपेक्षा अन्य तियंच जीवों को कम अनुभव होता है।
धेदनीय कर्म का विवेचन करने के अनन्तर अब क्रमप्राप्त मोहनीय कर्म का वर्णन करते हैं।
मोहनीय कर्म का स्वरूप मोहनीय कर्म का स्वभाव मद्य (शराब) के समान है। जैसे मद्य वे नशे में मनुष्य अपने हिसाहिल का भात भूल जाता है, उसी प्रकार मोहनीय कर्म के उदय से जीव में अपने स्वरूप एवं हिताहित को पहचानने और परखने की बुद्धि नहीं होती है। कदाचित् अपने हिताहित को परखने की भी बुद्धि भी आ जाये तो भी तदनुसार आचरण करने की सामर्थ्य प्राप्त नहीं कर पाता है ।
मोहनीय कर्म के दो भेद हैं(१) दर्शनमोहनीय और (२) चारित्रमोहनीय ।'
दर्शनमोहनीय-यहाँ दर्शन का अर्थ श्रद्धा समझना चाहिए । १. (क) मोहणिज्जे णं मंते ! कम्मे कतिविध पणते ? गोयमा ! दुबिहे पणले. तं जहा-दसणमोहणिज्जे व चरित्तमोहणिज्जे प ।
-प्रजापना.कर्मबंध पर २३, जा २ (स) मोहणिज्ज पि दुबिह दसणे चरणे तहा।।
--उत्तराध्ययन अ० ३३, गा.