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कर्म विपाक
उमे स्त्यानगृद्धि निद्रा (स्त्यानासंधातीभूता गृद्धिविनचिन्तितार्थ साधन विषयाऽभिकांक्षा यस्यां सा स्त्यानगृद्धिः ) कहते हैं ।
प्राकृत भाषा में स्वपान के स्थान पर 'द्ध' यह निपात हो जाता है ।
यदि बज्रऋषभनाराच संहनन वाले जीव को स्त्यान निद्रा का उदय हो तो उसमें बासुदेव के आधे बल के बराबर बल हो जाता है । इस निद्रा वाला जीव मरने पर नरक में जाता है ।
दर्शनrary कर्म भी देशघाती और सर्वघाती रूप में दो प्रकार का है। चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण देशघाती हैं और शेष छह प्रकृतियाँ सर्वपाती हैं। सर्वाती प्रकृतियों में केवलदर्शनावरण मुख्य है |
इस प्रकार दर्शनावरण कर्म के नौ भेदों का कथन करने के अनन्तर अब वेदनीय कर्म का वर्णन करते हैं । aaनीय कर्म का स्त्ररूप
।
खेदनीय - जो कर्म इन्द्रियों के कराये, उसे वेदनीय कर्म कहते हैं लगी धार को चाटने के समान है। जन्य ऐन्द्रियक सुख - दुःख का अनुभव करता रहता है । वेदनीय कर्म के दो भेद हैं- सातावेदनीय, असातावेदनीय ।'
१. (क) साया
विषयों का अनुभव अर्थात् वेदन इसका स्वभाव तलवार की शहद इस कर्म के उदय से जीव विषय
यमायाणि ।
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- प्रज्ञापना, पद २३, ७०२, सू० २६३
हियं ।
- उतराध्ययन, २०३३ ० ७
- तस्वार्थसूत्र, अ०
सूत्र
(ख) वेषणीयं यदुविहं सागमसायं च
(ग) सदस
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