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प्रथम कर्मग्रन्थ
निद्रा-जिस कर्म के उदय से जीव को सो निद्रा आये कि सुखपूर्वक जाग सके, अर्थात् जगाने में मेहनत नहीं पड़ती है. ऐसी निद्रा को निद्रा कहते हैं।
निद्रा-निद्रा-जिस कर्म के उदय से जीव को नींद से जगाना अत्यंत दुष्कर हो अर्थात् जो सोया हुआ जीव बड़े जोर से चिल्लाने या हाथ से हिलाने पर भी मुश्किल में जागता है, ऐसी नींद को निद्रा-निद्रा कहते हैं।
प्रथला-जिस कर्म के उदय ये बैठे-बैठे या खड़े-खड़े ही नींद आने लगे, उसको प्रचला कहते हैं ।
प्रचला-प्रचला--जिस कर्म के उदय से चलते-फिरते ही नींद आ जाय, उसे प्रचला-प्रचला कहते हैं।
स्त्यानार- कर्मो कदर में सात वरमा सोचे हुए कार्य को निद्रावस्था में करने की सामर्थ्य प्रकट हो जाय, उसे स्त्यानद्धि कहते हैं। इस निद्रा के उदय में जीव नींद में ऐसे असम्भव कार्यों को भी कर लेता है, जिनका जाग्रत स्थिति में होना संभव नहीं है और इस निद्रा के दूर होने पर अपने द्वारा निद्रित अवस्था में किये गये कार्य का स्मरण भी नहीं रहता है।
स्त्यानद्धि का दूसरा नाम स्त्यानगृद्धि भी है। जिस निद्रा के उदय से निद्रित अवस्था में विशेष बल प्रकट हो जाये (स्त्याने स्वप्ने यया वीर्य विशेषप्रादुर्भावः सा स्थानति) अथवा जिस निद्रा में दिन में चिन्तित अर्थ और साधन विषयक आकांक्षा का एकत्रीकरण हो जाय,
(ग) घरचक्षुरवाधिकेवलान्यांनिद्रानिद्रानिद्राप्रचलाप्रचलाप्रचलास्त्यानगृद्धयश्च ।
-तत्वार्थ सूत्र, अ० ८, सूत्र ,