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प्रथम कर्मग्रन्थ
अचक्षुवर्शनाबरण--चक्षुरिन्द्रिय को छोड़कर शेष स्पर्शन आदि चारों इन्द्रियों और मन के द्वारा होने वाले अपने-अपने विषयभूत सामान्यधर्म के प्रतिभास को अत्तक्षुदर्शन कहते हैं। उसके आवरण मारने वाले कर्म को अनामनारण करते हैं। ____ अवधिदर्शनावरण- इन्द्रियों और मन की सहायता के बिना ही आत्मा को रूपी द्रव्य के सामान्यधर्म का बोध होने को अवधिदर्शन कहते हैं। उसको आवृत करने वाले कर्म को अवधिदर्शनावरण कहते हैं।
केबलदर्शनावरण-सम्पूर्ण द्रव्यों के सामान्यधमों के अवबोध को केवलदर्शन एवं उसके आवरण करने वाले को केवलदर्शनावरण कहते हैं।
अवधिदर्शन की तरह मनःपर्ययदर्शन नहीं मानने का कारण यह है कि मन.पर्ययज्ञान क्षयोपशम के प्रभाव से पदार्थों के विशेषधर्मों को ग्रहण करता है, सामान्यधर्म को ग्रहण नहीं करता है।
चक्षुदर्शनावरण कर्म के उदय से एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और श्रीन्द्रिय जीवों के जन्म से ही नेत्र नहीं होते हैं एवं चतुरिन्द्रिय व पचेन्द्रिय जीवों के नेत्र उक्त कर्म के उदय से नष्ट हो जाते हैं अथवा रतौंधी आदि नेत्ररोग हो जाने से कम दीखने लगता है। इसी प्रकार चक्षुरिन्द्रिय के सिवाय शेष चार इन्द्रियों और मन का जन्म से ही न होना अथवा जन्म से होने पर भी कमजोर या अस्पष्ट होना अचक्षुदर्शनावरण कर्म के उदय के कारण होता है।
दर्शनावरण कर्म के चक्षुदर्शनावरण आदि चार भेदों का कथन करने के अनन्तर निद्रा, निद्रा-निद्रा आदि शेष पाँच भेदों एवं वेदनीय कर्म का कथन आगे की दो गाथाओं में करते हैं।
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