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प्रथम कर्मग्रन्थ श्रतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान के भेदों के आवरण करने वाले कर्मों को भी सामान्य से श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्ययज्ञानावरण समझना चाहिए । · श्रुतज्ञानावरण श्रुतज्ञान का आवरण करने वाले कर्म को श्रुतज्ञानावरण कहते हैं।
अबधिज्ञानावरण - जो कर्म अवधिज्ञान का आवरण करता है उसे अवधिज्ञानावरण कहते हैं।
मनःपर्ययज्ञानावरण -जो कर्म मनःपर्य यज्ञान का आवरण करे उस मनःपर्ययज्ञानावरण कहते हैं ।
केवलज्ञानावरण-केवलज्ञान का आवरण करने वाले कर्म को केवलज्ञानावरण कहते हैं।
ज्ञानावरण कर्म की उक्त पांच प्रकृत्तियाँ सर्वघाती और देशघाती रूप से दो प्रकार की हैं।' जो प्रकृति अपने पात्य ज्ञानगुण का पूर्णतया घात करे, बह सर्वघाती और जो अपने घात्य ज्ञानगुण का आंशिक रूप से घात करे, वह देशघाती है। मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानाबरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्ययज्ञानावरण यह चार प्रकृतियाँ देशघाती हैं और कवलज्ञानावरण सर्वधाती है। केवलज्ञानावरण कर्म सर्वघाती होने पर भी आत्मा के ज्ञानगुण को सर्वथा आवृत्त नहीं कर सकता है, परन्तु केवलज्ञान का सर्वथा निरोध करता है ।।
दर्शनावरण कर्म के स्वभाव के लिए द्वारपाल का दृष्टान्त दिया है । जिस प्रकार राजद्वार पर बैठा हुआ द्वारपाल किसी को राजा के दर्शन नहीं करने देता, उसी प्रकार दर्शनावरण कर्म जीव को पदार्थों १. णाणावर णिज्ने कम्मे दुविहे पण्णत. तं जहा–देसणाणावरणिज्जे चेर सच्चणाणाघरणिज्जे नेव ।
-स्थानांगसूत्र २४११०५