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कर्मविपाक
जीव-अजीब का कोई भेद नहीं रहेगा । ज्ञान आत्मा का गुण स्वभाव) नहीं माना जायेगा। ज्ञान के द्वारा ही तो जीन-अजीव का भेद किया जाता है कि ज्ञान जीव का गुण है, अजीव का नहीं और स्वभाव का कभी नाश नहीं होता है। इसलिए ज्ञानावरण कर्म आत्मा के गुण को आच्छादित ही कर सकता है, समूल नाश नहीं । __ यहाँ आँखों पर पट्टी का जो दृष्टान्त दिया गया है. उसका अभिप्राय यह है कि जैसे मोटे, पतले कपड़े की पट्टी होगी. तदनुसार कमज्यादा दिखेगा । इसी प्रकार ज्ञानावरण कर्म की आच्छादन शक्ति में भी न्यूनाधिक रूप से पृथक-पृथक् शक्ति होती है ।
पूर्व में वर्णित ज्ञान के पांचों भेदों के कथनानुसार उनके आवरण करने वाले कर्म के निम्नलिखित पाँच भेद होते हैं
(१) मतिज्ञानावरण, (२) श्रुतज्ञानावरण, (३) अवधिज्ञानावरण (४) मनःपर्ययज्ञानाचरण और (५) केवलज्ञानावरण।
मतिज्ञानावरण -मतिज्ञान का आवरण करने वाला कर्म मतिज्ञानावरण कहलाता है। पूर्वोक्त भिन्न-भिन्न प्रकार के मतिज्ञानों के आवरण करने वाले भिन्न-भिन्न कमों को भी मतिज्ञानावरण कहेंगे। क्योंकि वे सब मतिज्ञान के भेद हैं, इसलिए उन सन्त्रका सामान्य से मतिज्ञान शब्द से और उन-उनका आवरण करने वाले कर्मों का मतिज्ञानावरण इस एक शब्द से ग्रहण कर लिया गया है। इसी प्रकार
१. (क) नाणावरणं पंचविहं गुयं आभिणिबोहियं । ओहिनाणं च तइयं मणनाण च केवल ।।
__ --उत्सराध्यापन, अ० ३३, गा० ४ (ख) स्थानाग, स्थान ५, उ० ३, सूत्र ४६४ (ग) मतिश्रुतावधिमन पर्यय केवलानाम् । तत्त्वार्यसूत्र. अ. ६, सूत्र ६