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प्रथम कर्मग्रन्थ
में उनके आवरणों और दर्शनावरण कर्म के भेदों की संख्या का कथन करते हैं ।
एसि जं आवरणं पड़न्त्र चक्खुस्त तं तयावरणं । हंसणच पना वितिसमं दंसणावरणं
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॥ गाथार्थ - आँख की पट्टी के समान इन मतिज्ञान आदि गाँवों ज्ञानों का जो आवरण है, वह उन ज्ञानों का आवरण कहलाता है । दर्शनावरण कर्म द्वारपाल के समान है और उसके चार दर्शनावरण और पांच निद्रा कुल मिलकर नौ भेद होते हैं ।
ज्ञानावरण कर्म का स्वरूप विशेषार्थ - ज्ञान का आवरण करने वाले कर्म को ज्ञानावरण कहते हैं जैसे आँख पर पट्टी बाँधने पर देखने में रुकावट आती है, उसी प्रकार ज्ञानावरण कर्म के प्रभाव से आत्मा को पदार्थों के जानने में
कावट आती है। लेकिन यह रुकावट ऐसी नहीं होती है कि जिससे आत्मा को किसी प्रकार का ज्ञान ही न हो। जैसे घने बादलों से सूर्य के तक जाने पर भी दिन-रात का भेद समझाने वाला सूर्य का कुछन कुछ प्रकाश अवश्य बना रहता है। इसी प्रकार कर्मों का चाहे जैसा गाढ़ आवरण हो जाय, लेकिन आत्मा को कुछ-न-कुछ ज्ञान अवश्य रहता है । क्योंकि ज्ञान आत्मा का गुण है और आवरण ज्ञानगुण को आच्छादित तो कर सकता है, समूलोच्छेद नहीं कर सकता है। आवृत होने पर भी केवलज्ञान का अनन्तवाँ भाग तो नित्य उद्घाटित - अनावरित ही रहता है ।' यदि ज्ञान का समूलोच्छेद हो जाय तो फिर
१ सवजीवाणां पि ध णं अक्वरस्स अनंतभागोणिचचुघाडिओ बई | जय पुर्ण सोवि आवरिज्जा तेणं जीवो अजीवत्तं पवेज्जा ॥
—चन्दसत्र ७५