Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्म विपाक
चार ज्ञान तक भजना से हो सकते हैं। किसी जमा एक किसी में दो, किसी में तीन और किसी में चार ज्ञान तक संभव हैं । परन्तु पाँचों ज्ञान एक साथ किसी में नहीं होते हैं। क्योंकि यदि एक ज्ञान होगा तो केवलज्ञान होगा और केवलज्ञान परिपूर्ण होने से उसके साथ अन्य चार ज्ञान अपूर्ण होने से नहीं हो सकते। जब दो होते हैं तब मतिज्ञान और श्रुतज्ञान होंगे। क्योंकि पाँच ज्ञानों में से ये दोनों ज्ञान सहचारी हैं । समस्त संसारी जीवों के ये दोनों ज्ञान सहचारी रूप से रहते हैं । जब तीन ज्ञान होते हैं, तब मति, श्रुत, अवधिज्ञान अथवा मति, श्रुल, मन:पर्ययज्ञान | क्योंकि तीन ज्ञान अपूर्ण अवस्था में ही संभव हैं और उस अवस्था में चाहे अवधिज्ञान हो, या मन:पर्ययज्ञान, परन्तु मति और श्रुतज्ञान अवश्य होते हैं। जब चारों ज्ञान होते हैं तब मति श्रुत, अवधि और मन:पर्ययज्ञान | क्योंकि ये चारों ज्ञान अपूर्ण अवस्थाभावी होने से एक साथ हो सकते हैं ।
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में
यह दो, तीन, चार ज्ञानों का एक साथ होना शक्ति की अपेक्षा संभव है, अभिव्यक्ति की अपेक्षा नहीं ।"
मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान पंच महाव्रतधारी मनुष्य को ही होते हैं, अन्य को नहीं ।
इस तरह मतिज्ञान के २८, श्रुतज्ञान १४ अथवा २०, अवधिज्ञान के ६, मन:पर्ययज्ञान के २ और केवलज्ञान का एक भेद - इन सब भेदों को मिलाने से पाँचों ज्ञानों के ५१ या ५७ भेद होते हैं ।
ज्ञान के पांचों भेदों का वर्णन करने के बाद आगे की गाथा
१. (क) जीवाभि० प्रतिपत्ति ३, सूत्र ४१
(ख) एकादीनि भाज्यानि गुगपदेकस्मिन्नाचतुर्भ्यः ।
- तत्त्वार्थसूत्र अ १, सुत्र ३०