Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्मविपाक
और उत्कृष्ट से भी पल्योपम के असंख्यातवं भाग- भूत और भविष्यत् के मनोगत भावों को जानता देखता है और विपुलमति ऋजुमति की अपेक्षा कुछ अधिक काल के मन से चिन्तित या जिनका चिन्तन होगा, ऐसे पदार्थों को विशुद्ध, भ्रमरहित जानता देखता है ।
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भाव से ऋजुमति मनोगत भावों की असंख्यात पर्यायों को जानता देखता है, लेकिन सब भावों के अनन्तवें भाग को जानतादेखता है और विपुलमति ऋजुमति की अपेक्षा कुछ अधिक पर्यायों को विशुद्ध, भ्रमरहित जानता देखता है ।
उक्त विशेषताओं के अतिरिक्त दोनों प्रकार के मन:पर्ययज्ञानों में निम्नलिखित कुछ और विशेषताएँ है---
ऋजुमति की अपेक्षा विपुलमति मन:पर्ययज्ञान सूक्ष्मतर और अधिक विशेषों को स्फुटतया जानता है ।
ऋजुमति उत्पन्न होने के बाद कदाचित् चला भी जाता है परन्तु विपुलमति मन:पर्ययज्ञान नहीं जाता है। वह केवलज्ञान में परिणत हो जाता है और तब उसकी सत्ता अकिंचित्कर होती है ।" अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान में अन्तर
अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान विकल - अपूर्ण - पारमार्थिक प्रत्यक्ष के रूप से समान होने पर भी इनमें विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी और विषयकृत अन्तर है । जैसे
एमए बंधे जाण, पासइ ले चैव बिउलमई अमहियतराए, विउलतराए, विसुद्धतराए त्रितिमि तर जाण
पासव ......
"इस्यादि ।
१. ( क ) उज्जुमई अनंते
- मन्दी सूत्र १८
(ख) विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां सद्विशेषः । सस्थासूत्र. ४० १ सूत्र २४
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