Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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प्रथम कर्मग्रन्थ
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ऋजुमति - दूसरे के मन में स्थित पदार्थ के सामान्य स्वरूप को जानना, विषको सामान्य सेवान्ना ऋतुपति मनःपर्ययज्ञान कहलाता है ।
विपुलमति-दूसरे के मन में
स्थित पदार्थ की अनेक पर्यायों को जानना, अर्थात् चिन्तनीय वस्तु की पर्यायों को विविध विशेषताओं सहित स्फुटता ने जानना विपुलमति मन:पर्ययज्ञान कहलाता है ।
ऋजुमति और विपुलमति मन:पर्ययज्ञान में अन्तर
यद्यपि ऋजुमति और विपुलमति मन:पर्ययज्ञान, ज्ञान होने से विशेष को जानते हैं, तो भी ऋजमति को जो सामान्यग्राही कहा जाता है, उसका मतलब इतना है कि वह विशेषों को जानता है, परन्तु विपुलमति जितने विशेषों को नहीं जानता है। इसीलिए इन दोनों की द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा विशेषता बतलाते हैं
द्रव्य से -- ऋजुमति मनोवर्गणा के अनन्त अनन्त प्रदेश वाले स्कन्धों को जानता देखता है और विपुलमति ऋजुमति की अपेक्षा अधिक प्रदेशों वाले स्कन्धों को विशुद्धता और अधिक स्पष्टता मे जानतादेखता है ।
क्षेत्र से - ऋजुमति जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र क्षेत्र को तथा उत्कृष्ट से नीचे रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे क्षुल्लक प्रतर (कुबड़ी उड़ोविजय) तक को और ऊपर ज्योतिष चक्र के उपरितलपर्यन्त और तिरछे अढाई द्वीपपर्यन्त के संज्ञी जीवों के मनोगत भावों को जानता देखता है और विपुलमति ऋजुमति की अपेक्षा अढाई अंगुल अधिक तिरछी दिशा में क्षेत्र के संज्ञी जीवों के मनोगत भावों को देखता - जानता है ।
काल से - ऋजमति जघन्य से पत्योपस के असंख्यातवें भाग