Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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प्रथम कर्मग्रन्थ
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है, कभी बढ़ता है, कभी आविर्भूत हो जाता है और कभी तिरोहित हो जाता है, उसे अनवस्थित कहते हैं ।
अवस्थित-जो अवधिज्ञान जन्मान्तर होने पर भी आत्मा में अवस्थित रहता है या केवलज्ञान की उत्पत्ति-पर्यन्त अथवा आजन्म ठहरता है, वह अवस्थित अवधिज्ञान कहलाता है। - उक्त दोनों भेद प्रायः प्रतिपाती और अप्रतिपाती के समान लक्षण वाले हैं। किन्तु मात्र नामभेद की अपेक्षा से भिन्न-भिन्न कहे जा सकते हैं । अन्य कोई पार्था नहीं है।
अवधिज्ञान का द्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा वर्णन अवधिज्ञान रूपी पदार्थों को जानता है। लेकिन कितने, कैसे आदि इस क्षयोपशमजन्य तरतमता को द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादा की अपेक्षा से स्पष्ट करते हैं।
द्रव्य से ... अवधिज्ञानी जघन्य से. अर्थात् कम से कम अनन्त' रूपी द्रव्यों को जानता-देखता है और उत्कृष्ट से अर्थात् अधिक से अधिक सम्पूर्ण रूपी द्रव्यों को जानता-देखता है।
क्षेत्र से -- अवधिज्ञानी जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भाग जितने क्षेत्र के द्रव्यों को जानता-देखता है और उत्कृष्ट से लोक के क्षेत्रगत रूपी द्रव्य को और अलोक में भी कल्पना से यदि लोकप्रमाण के असंख्यात खण्ड किये जायें तो अवधिज्ञानी उन्हें भी जानने-देखने की शक्ति रखता है।
यद्यपि अलोक में कोई पदार्थ नहीं है, तथापि यह कल्पना अवधिज्ञान की सामर्थ्य दिखाने के लिए की गई है कि अलोक में लोकप्रमाण असंख्यात खण्ड जितने क्षेत्र को घेर सकते हैं, उतने क्षेत्र के