Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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प्रथम कर्म ग्रन्थ
है, वह जीव उस स्थान के चारों ओर संख्यात असंख्यात योजन तक देखता है तथा दूसरे स्थान में जाने पर भी वह उतने क्षेत्र को जानता देखता है, उसे अनुगामी कहते हैं । (अनु-पश्चात् गमनं इति अनुगमनं - अनुगच्छतीति तस्य भावः अनुगामिकं, अर्थात् जो जीव के साथ-साथ जाता रहता है, उसे आनुगामिक कहते हैं ।)
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अननुगामी - जो साथ न चले, किन्तु जिस स्थान पर अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ, उसी स्थान में स्थित होकर पदार्थो को जाने और उत्पत्तिस्थान को छोड़ देने पर न जाने उसे अमनुगामी कहते हैं। जैसे किसी का ज्योतिषज्ञान ऐसा होता है कि अपने निश्चित स्थान पर तो प्रश्नों का ठीक से उत्तर दे सकता है किन्तु दूसरे स्थान पर नहीं । इस प्रकार अपने ही स्थान पर वरियतां जे अभिज्ञान को अनुगामी कहते हैं ।
बर्धमान - जो अवधिज्ञान उत्पत्ति के समय अल्प विषय वाला होने पर भी परिणाम विशुद्धि के साथ द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादा को लिए दिनोंदिन बढ़े, अर्थात् अधिकाधिक विषय वाला हो जाता है, वह वर्धमान कहलाता है। जैसे दियासलाई मे पैदा की हई चिनगारी सूखे ईधन के संयोग से क्रमशः बढ़ती जाती है, वैसे ही इस अवधिज्ञान के लिए समझना चाहिए |
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हीयमान - जो अवधिज्ञान उत्पत्ति के समय अधिक विषय वाला होने पर भी परिणामों की अशुद्धि के कारण दिनों-दिन क्रमशः अरूप, अल्पतर और अल्पतम विषय वाला हो जाए, उसे हीयमान कहते हैं ।
प्रतिपाती - इसका अर्थ पतन होना, गिरना और समाप्त हो जाना है । जो अवधिज्ञान जगमगाते दीपक के वायु के एक बुझ जाने के समान एकदम लुप्त हो जाता है,
झोंके से एकाउसे प्रतिपाती