Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
कर्मविपाक
उक्त उदाहरण में पक्षी को आकाश में उड़ने की शक्ति जन्मतः प्राप्त होने का संकेत किया है, उसी प्रकार भवप्रत्यय अवधिज्ञान के लिए समझ लेना चाहिए कि देव-नारकों को उस-उस जाति में जन्म लेने मे अवधिज्ञान हो जाता है। वहाँ आपेक्षिक दृष्टि से जन्म की मुख्यता और क्षयोपशम की गौणता है। इसीलिए भव की मुख्यता की अपेक्षा भवप्रत्यय अवधिज्ञान कहा जाता है। __इसके विपरीत कुछ जातियां ऐसी होती है, जिनमें जन्म लेने मात्र से ही अवधिज्ञान नहीं हो जाता है। किन्तु ब्रत-अनुष्ठान आदि के द्वारा अवधिज्ञान के योग्य भयोणार होते पहा शक्ति विशेषों को' अवधिज्ञान होना और उसमें वृद्धिहानि होना भी संभव है । इसीलिए ऐसे अवधिज्ञान को गुणप्रत्यय अवधिज्ञान कहते हैं।
भवप्रत्यय अवधिज्ञान मैं यावज्जीवन कुछ भी अन्तर नहीं पड़ता है, वह समान रहता है: अल्पाधिकता आदि नहीं होती है। किन्तु गुणप्रत्यय अवधिज्ञान में वृद्धि-हास-जन्य तरतमता होने से अल्पाधिकता होती है। इसीलिए गाया में गुणप्रत्यय अवधिज्ञान के निम्नलिखित छह भेद बताये हैं
(१) अनुगामी, (२) अननुगामी, (३) वर्धमान, (४) हीयमान, (५) प्रतिपाती (६) अप्रतिपाती ।' इनकी व्याख्या इस प्रकार है
अनुगामी -जो अबधिज्ञान अपने उत्पत्तिक्षेत्र को छोड़कर दूसरे स्थान पर चले जाने पर भी विद्यमान रहता है, उसे अनुगामी कहते हैं; अर्थात जिस स्थान पर जिम जीव में यह अवधिज्ञान प्रकट होता १. लिहे आहिनाणे पाणने, लं जा-अणुगामिए, अणणुगामिए. वड्माणार, हीयमाणा. परिवाई, अपडिवाई ।
-स्थामांग, स्थान ६, सूत्र ५२६