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कर्मविपाक
मत्तिज्ञान और श्रुतज्ञान का कथन करने के बाद अब अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान का वर्णन करते हैं ।
अणुगामि पहाडमाणय पडिवाईयरविहा छहा ओहो । रिउमद विउलमई मणनाणं केवल मिगविहाणं ॥८॥ गाथार्थ-अनुगामी, वर्धमान प्रतिपाती और इनमें प्रत्येक के प्रतिपक्षी को जोजो विभिना ने छह भेष होते हैं। ऋजुमति और विपुलमति—ये मनःपर्ययज्ञान के दो भेद हैं तथा केवलज्ञान का एक भेद है, अर्थात् केवलज्ञान का अन्य कोई भेद नहीं होता है।
विशेषार्थ-अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान - ये तीनों ज्ञान मन और इन्द्रियों की सहायता विना सीधे आत्मा से होने वाले ज्ञान होने से प्रत्याज्ञान कहलाते हैं। उनमें से सर्वप्रथम अवधिज्ञान का वर्णन करते हैं। अवधिज्ञान के भेद ___ अवधिज्ञान के दो भेद हैं-(१) भवप्रत्यय तथा (२) गुणप्रत्यय ।' गुणप्रत्यय को क्षयोपशमजन्य भी कहते हैं। इनकी विशद व्याख्या इम प्रकार है .
भवप्रत्यय अवधिज्ञान----भव माने जन्म और प्रत्यय माने कारण, अर्थात् जो अवधिज्ञान उस-जस गति में जन्म लेने मे ही प्रगट होता है, १. ओहिनाण-पच्चरन दुविहं 'पणानं, जहा- भवाच्च इयं च स्वाओवसभियं च।
- नन्दीसूत्र, ६ २. (क) दोण्ह भवपच्चइए पण्णने, तं जहा.-देवाण चव ने याणं चैव ।
-स्यानांग, स्थान २, उ. १, सूत्र ७१ (ख) भवप्रत्ययोऽवधि देवनार काणाम् ।- तत्त्वार्थसूत्र. अ. १, सूत्र २१