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प्रथम कर्मग्रन्थ
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जिसके लिए संयम, तप आदि अनुष्ठान की अपेक्षा नहीं रहती उसे प्रत्यय अवधिज्ञान कहते हैं। यह अवधिज्ञान देव और नारकों में होता है और उनके जीवनपर्यन्त रहता है ।
गुणप्रत्यय अवधिज्ञान - जो अवधिज्ञान जन्म लेने से नहीं, किन्तु जन्म लेने के बाद यम-नियम और व्रत आदि अनुष्ठान के बल से उत्पन्न होता है, उसे गुणप्रत्यय या क्षयोपशमजन्य अवधिज्ञान कहते हैं । यह अवधिज्ञान मनुष्य और पंचेन्द्रियतियंत्र जीवों को ही होता है । " अवधिज्ञान में अन्तर
भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय
यद्यपि गुणप्रत्यय की तरह भवप्रत्यय अवधिज्ञान में भी सामान्यतया क्षयोपशम ( तयावर णिज्जा कम्माणं उदिष्णाणं स्वएणं अणुदिणाणं उसमे ) तो अपेक्षित है ही किन्तु यहाँ भव की मुख्यता का कथन निमित्त भेद की अपेक्षा से किया हैं । देहधारियों की कुछ जातियां ऐसी हैं कि जिनमें जन्म लेते ही योग्य क्षयोपशम और उसके द्वारा अवधिज्ञान की उत्पत्ति हो जाती है, उनको अवधिज्ञान के योग्य क्षयोपशम के लिए उस जन्म में व्रत तप आदि अनुष्ठान नहीं करने पड़ते हैं। ऐसे जीवों को अपनी स्थिति के अनुरूप न्यूनाधिक रूप में जन्म लेते ही अवधिज्ञान उत्पन्न हो जाता है और वह उस गति में जीवनपर्यन्त रहता है। जैसे कि पक्षी जाति में जन्म लेने से ही आकाश में उड़ने की शक्ति प्राप्त हो जाती है और इसके विपरीत मनुष्य जाति में जन्म लेने मात्र से कोई आकाश में नहीं उड़ सकता, जब तक कि वायुयान आदि का महारा न ले ।
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१. दोन्हं खओवस मिए पष्णतं तं जहा - मधुरसाणं चैव पचिदिय-तिरिषखजोगियाणं वेष | - स्वामांग, स्थान २. उद्दे० १ सूत्र ७१