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कर्मविपाक
कहते हैं | यह अवधिज्ञान जीवन के किसी भी क्षण में उत्पन्न और लुप्त भी हो सकता है ।
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अप्रतिपाती - जिस अवधिज्ञान का स्वभाव पतनशील नहीं है, उसे अप्रतिपाती कहते हैं । केवलज्ञान होने पर भी अप्रतिपाती अवधिज्ञान नहीं जाता है क्योंकि वहाँ अवधिज्ञानावरण का उदय नहीं होता है, जिसने जाए। अपितु वह केवलज्ञान में समा जाता है एव केवलज्ञान के समक्ष उसकी सत्ता अकिंचित्कर होती है, जैसे कि सूर्य के समक्ष दीपक का प्रकाश ।
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यह अप्रतिपाती अवधिज्ञान बारहवें गुणस्थानवर्ती जीत्रों के अन्त समय में होता है और उसके बाद तेरहवाँ गुणस्थान प्राप्त होने के प्रथम समय के साथ केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है । इस अप्रतिपाती अवधिज्ञान को परमावधिज्ञान भी कहते हैं।"
होयमान और प्रतिपाती अवधिज्ञान में यह अन्तर है कि हीयमान का तो पूर्वापेक्षा धीरे-धीरे ह्रास हो जाता है और प्रतिपाती दीपक की तरह एक ही क्षण में नष्ट हो जाता है ।
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अवधिज्ञान के उक्त छह भेद नन्दीसूत्र के अनुसार बतलाये गये हैं। लेकिन कहीं कहीं प्रतिपाती और अप्रतिपाती के स्थान पर अनवस्थित और अवस्थित यह दो भेद मानकर छह भेद गिनाये हैं । अनवस्थित और अवस्थित के लक्षण ये हैं
अनवस्थित जल की तरंग के समान जो अवधिज्ञान कभी घटता
१. श्रद्यपि अनुपामी और अननुगामी इन दो मेत्रों में दोष भेदों का अन्तर्भाव हो सकता है। लेकिन बर्धमान होयमान आदि विशेष भेट बतलाने के लिए
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उनका पृथक् पृथक् व्यास किया गया है ।