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कर्मविपाक
सुहपडिबोहा निद्दा निद्दानिद्दा य दुक्खपडिबोहा । पयला ठिओविट्ठस पयलपयला य धकमयो ॥११॥ विधितियस्थकरणी थीणद्धी अब्रुचक्कि अबला ।
महुलित्तखग्गधारालिहणं व दुहा उ वेणियं ॥१२॥ गाथार्थ-जिसमें सरलता से पतिजोध हो, हमे निद्रा और जिसमें कष्ट से प्रतिबोध हो उसे निद्रा-निद्रा तथा बैठे-बैठे या खड़े-खड़े जो नींद आये उसे प्रचला एवं चलते-चलते नींद आने को प्रचला-प्रचला निद्रा कहते हैं। दिन में विचार किये हुए कार्य को रात्रि में निद्रावस्था में करके वाली निद्रा को स्त्यानद्धि निद्रा कहते हैं। इस निद्रा में जीब को अर्धचक्री अर्थात् बासुदेव के बल से आधे बल जितनी शक्ति हो जाती है । वेदनीय कर्म मधु (शहद) से लिप्त तलवार की धार को चादने के समान है और यह कर्म दो प्रकार का है। विशेषार्थ-- दर्शनावरण कर्म के नौ भंदों में से चक्षुदर्शनावरण आदि चार भेदों का वर्णन पूर्व गाथा में हो चुका है और शेष पाँच भेदों व वेदनीयकर्म का कथन यहाँ किया जाता है। ___ दर्शनावरण के शष पाँच भेदों के नाम क्रमशः इस प्रकार हैंनिद्रा, निद्रा-निद्रा, प्रचला, प्रचला-प्रचला, म्त्यानद्धि ।' इनके लक्षण इस प्रकार हैं :
१. (क) गवविहे दाभणावरणिज्नं कम्म पणते, तं जहा-निद्दा, निद्दानिदा,
पयना, पालापयला, यीणगिद्धी चनखुदसणावरणे, अचक्खुदसणाबरणे, ओहिदसणावरणे, केवलदसणाव रणे ।
-स्थानांग, स्था० ६, सूत्र ६६८ (ख) उत्तगम्यम्न स्त्र, अ. ३३, माथा ५, ६