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कर्मविपाक रूपी द्रव्यों को जानने और देखने की भी शक्ति अवधिशानी में होती है। ___ काल से- अवधिज्ञानी जघन्य मे आलिका के असंख्यातवें भाग मात्र के रूपी द्रव्यों को जानता-देखता है और उत्कृष्ट से असंख्य उत्सविणी-अवरपियो प्रमाण अतीत और अनागत काल के रूपी द्रव्यों को जानता-देखता है।
भाव से-जघन्य में रूपी द्रव्य' की अनन्त पर्यायों को जानतादेखता है और उत्कृष्ट से भी अनन्त पर्यायों को जानता-देखता है।
अनन्त के अनन्त भेद होते हैं। चाहे ये भेद जोड़, बाकी, गुणा और भाग रूपों में से किसी भी प्रकार के हों। फिर भी अनन्त भेद ही होंगे। इसलिए जघन्य और उत्कृष्ट अनन्त में अन्तर समझ लेना चाहिए । अनन्त भाव का आशय सम्पूर्ण भावों के अनन्तवें भाव जितना समझ लेना चाहिए।
जिस प्रकार मिथ्यादृष्टि जीव के मति और श्रुत को कुमति और कुश्रुत (मति-अज्ञान और श्रुत-अज्ञान) कहते हैं, उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि जीव के अवधिज्ञान को विभंगज्ञान कहते हैं।' ____ अवधिज्ञान का वर्णन करने के अनन्तर अब मनःपर्ययज्ञान का कथन करते हैं।
मनःपर्ययज्ञान-मनःपर्यायज्ञान के दो भेद हैं- ऋजुमति और विपुलमति ।'
१. (क)अणाय परिणामे न भन्ने कतिविधे पणात ? गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते,
नं जहा -मइअगाण परिणाम, मयअमाण परियामे, विमंगणाण परिगामे ।
--प्रज्ञापना, पद १३ (4) मतितायधयो विपर्ययश्च । -तस्यायसूत्र, अ० १. सूत्र ३१ २. मणपज्जवणाणे दृविहे पाणतो, न जहा -उज्जुमति चेव विउलमति चेव ।
• स्थानांग, स्थान २. उ० १, सूत्र ७१