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कर्मविपाक
(४) लब्ध्यक्षरों के समुदाय को, अर्थात् एक से अधिक दो, तीन, चार आदि संख्याओं के ज्ञान को अक्षरसमसचुप्त कहते हैं ।
(५) अर्थावबोधक अक्षरों के समुदाय को पद और उसके ज्ञान को पवधु त कहते हैं।
(६) पदों के समुदाय का ज्ञान पवसमासश्रुत कहलाता है । .. (७) गति आदि चौदह मार्गणाओं में से किसी एक मार्गणा के एकदेश के ज्ञान को संघातश्रुत कहते हैं। जैसे - गतिमार्गणा के देव, मनुष्य, तिर्यच, नारक-ये चार भेद हैं। उनमें से एक का ज्ञान होना संघात त है।
(E) किसी एक मार्गणा के अनेक अवयवों का ज्ञान संघातसमासश्रुत कहलाताता है।
{6) गति, इन्द्रिय आदि द्वारों में से किसी एक द्वार के जरिये समस्त संसार के जीवों को जानना प्रतिपत्तिश्चत है।
(१०) गति आदि दो-चार द्वारों के जरिये जीवों का ज्ञान होना प्रतिपत्तिसमासत है।
(११) 'सतपय परूवणया दव्व पमाणं च' इस गाथा में कहे हुए अनुयोग द्वारों में से किसी एक के द्वारा जीवादि पदार्थों को जानना अमुयोगधुत है।
(१२) एक से अधिक दो-तीन अनुयोगद्वारों का ज्ञान अनुयोगसमास त है।
(१३) दृष्टिवाद अंग में प्राभूत-प्राभृत नामक अधिकार है। उसमें से किसी एक का ज्ञान प्राभृत-प्रामृतश्रुत है ।
(१४) दो-चार प्राभूत-प्राभूतों के ज्ञान को प्रामृत-प्राभृतसमासात कहते हैं।