Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्मविपाक
श्रतज्ञान सादिसान्त (सपर्यवसित) है । लेकिन समस्त जीवों की अपेक्षा श्रुतज्ञान अनादि, अपर्यवसित-अनन्त है; क्योंकि संसार में सबसे पहले अमुक जीव को श्रुतज्ञान इत्या और अमक जीत के मुक्त होने पर अन्त हो गया, ऐसा नहीं कहा जा सकता है। अतएव सब जीवों की अपेक्षा धाराप्रवाह रूप से श्रुतज्ञान अनादि, अपर्यवसित-अनन्त है ।
क्षेत्रापेक्षा-श्रुतमान सादि-सान्त तथा अनादि-अनन्त है; जैसेभरत और ऐरावत क्षेत्रों में तीर्थङ्करों द्वारा जब तीर्थ की स्थापना होती है, तब द्वादशांगी श्रुतज्ञान की आदि और जब तीर्थ का विच्छेद होता है तब श्रुतज्ञान का भी अन्त हो जाता है । इस प्रकार श्रुतज्ञान सादि-सान्त हुआ । लेकिन महाविदेहक्षेत्र में तीर्थ का कभी बिच्छेद नहीं होता है, इसलिए उस क्षेत्र की अपेक्षा श्रुतज्ञान अनादि-अनन्त है।
कालापेक्षा- श्रुतज्ञान सादि-सान्त और अनादि-अनन्त है। उत्सपिणी और अवसपिणी काल की अपेक्षा से श्रुतज्ञान सादि-सान्त है। क्योंकि तीसरे आरे के अन्त में और चौथे, पाँचवें आरे में रहता है तथा छठे आरे में नष्ट हो जाता है। किन्तु नोउन्सपिणी, नोअवसर्पिणी काल की अपेक्षा से श्रुतज्ञान अनादि-अनन्त है। ___ भावापेक्षा-श्रुतज्ञान में श्रुत प्राब्द से सम्यक्श्रुत (सुश्रुत) और मिथ्याश्रुत (कुश्रुत) रूप दोनों का ग्रहण किया गया है। श्रुतज्ञान सादि-सान्त और अनादि-अनन्त है। भव्य जीवों के सम्यक्भावों की अपेक्षा से श्रुतज्ञाम सादि-सान्त है और अभव्य जीवों के भावों की अपेक्षा से मिथ्यारूप श्रुतज्ञान अनादि-अनन्त है।
भव्यत्व और अभव्यत्व, ये दोनों जीवों के पारिणामिक भाव हैं । पारिणामिक भाव द्रव्य का वह परिणाम है, जो द्रव्य के अस्तित्व से स्वयमेव हुआ करता है; अर्थात द्रव्य के स्वाभाविक स्वरूप परिणमन को पारिणामिक भाव कहते हैं।