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कर्मविपाक
है । 'संज्ञानं संज्ञा-सम्यग्ज्ञान तदस्यास्तीति संजी-सम्यादृष्टिस्तस्य यत्श्रुतं तत्संज्ञिश्रुतं सम्यक्श्रुतमिति ।' जो सम्यग्दृष्टि क्षयोपशमज्ञान से युक्त है, वह दृष्टिवादोपदेश की अपेक्षा से संझी कहलाता है और बह रागादि भावंशत्रुओं को जीतने में प्रयत्नशील होता है । उसके श्रुत को संज्ञीश्रुत कहते हैं।
(५) सम्यक्श्रुत-सम्यग्दृष्टि जीवों का श्रुत सम्यक्श्रुत कहलाता है।
(६) मिथ्यात- मिथ्यादृष्टि जीवों के श्रुत को मिथ्याश्रुत कहते हैं।
(७) साविश्रुत-जिसकी आदि (प्रारम्भ, शुरूआत) हो, वह सादिश्रुत है।
(E) अनादिश्रुत-जिसकी आदि न हो, वह अनादिश्रुत है।
(E) सपर्यवसितश्रुल-जिसका अन्त हो, वह सपर्यसितश्रुत काहलाता है।
(१०) अपर्यवसितश्रुत-जिसका अन्त न हो, वह अपर्यवसिंतश्रुत है।
पर्यायाथिक नय की अपेक्षा श्रुतज्ञान सादि, सपर्यवसित और द्रव्याथिकनय की अपेक्षा अनादि, अपर्यवसित है।
१११) गमिकश्रुत - आदि, मध्य और अवसान में कुछ विशेषता से उसी सूत्र को बार-बार कहना गमिकश्रुत है, जैसे-दृष्टिवाद ।
(१२) अगमिक्रश्रुत-जिसमें एक सरीखे पाठ न आते हों, उसे अगमिकश्रुत कहते हैं, जैसे कालिकश्रुत ।
(१३) अंगप्रविष्टश्रत-जिन शास्त्रों की रचना तीर्थकरों के