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प्रथम कर्मग्रन्थ उपदेशानुसार गणधर स्वय करते हैं, उन्हें अंगप्रविष्टश्रुत कहतह, अर्थात् तीर्थकर वस्तु का स्वरूप-भाव कहते हैं, प्रतिपादन करते हैं और गणधरों के द्वारा उन भावों को सूत्र रूप में गूंथा जाना अंगप्रविष्ट श्रुत है । आचारांग आदि बारह मूत्र अंगप्रविष्टश्रुत हैं ।
(१४) अंगबाहाश्रुत-गणधरों के अतिरिक्त, अंगों का आधार लेकर जो स्थविरों के द्वारा प्रणीत शास्त्र हैं, वे अगवाह्यश्रुत हैं; जैसे-दशवैकालिक, उत्तराध्ययन आदि सूत्र । ___ अंगबाह्य श्रुत के दो प्रकार हैं--(१) आवश्यक और (२) आवश्यकव्यतिरिक्त । गुणों के द्वारा आत्मा को वश में करना आवश्यकीय है, ऐसा वर्णन जिसमें हो उसे आवश्यक श्रुत' कहते हैं । इसके छह अध्ययन हैं—सामायिक, जिनस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग आर प्रत्याख्यान । आवश्यक व्यतिरिक्त श्रुत के अनेक प्रकार हैं, जिनकी विशेष व्याख्या व नाम आदि की जानकारी के लिए नन्दीसून देखें। ___ सपर्यवसित और सान्त (अन्तसहित) दोनों का अर्थ एक ही है । इसी प्रकार अपर्यवसित और अनन्त एकार्थक हैं। सादिश्रुत, अनादिश्रुत, सपर्यवसितश्रुत और अपर्यवसितधुत इन चार के द्रव्य, क्षेत्र काल, भाव को अपेक्षा चार-चार प्रकार होते हैं। वे इस प्रकार हैं
ल्यापेक्षा-एक जीब की अपेक्षा श्रुतज्ञान सादि-प्रारम्भसहित और सपर्यवसित-अन्तराहित है। अर्थात् जब जीवों को सम्यक्त्व हुआ तो उसके साथ श्रुतज्ञान भी हुआ। इस प्रकार श्रुतज्ञान सादि हुआ और जब सम्यक्त्व का त्याग करता है अथवा केवलज्ञानी होता है, तब श्रुतशान का अंत हो जाता है। इस प्रकार एक जीव की अपेक्षा १. 'आवश्यक' शब्द की विशेष व्याख्या के लिए अनुयोगद्वारसूत्र, अध्याय -