Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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प्रथम कर्मग्रन्थ
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(४) असंतो त-जिन जीवों के मन नहीं है, वे असंज्ञी कहलाते हैं और उनके श्रुत को असंज्ञीश्रुत कहते हैं ।
दीर्घकालिकी, हतुवादोपदेशिकी और दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञाओं की अपेक्षा संज्ञी और असंज्ञी जीवों की व्याख्या निम्न प्रकार समझनी चाहिए।
दोर्घकालिकी की अपेक्षा- जिसके ईहा सदर्थ के विचारने की बुद्धि, अपोह - निश्चयात्मक विचारणा मार्गणा - अन्वयधर्म-अन्वेषण करना, गवेषणा - व्यतिरेकधर्म स्वरूप पर्यालोचन, चिन्ता यह कार्य कैसे हुआ ? वर्तमान में कैसे हो रहा है और भविष्यत में कैसे होगा ? इस प्रकार व वस्तुस्वरूप को गत करने की शक्ति है, उन्हें सज्ञी कहेंगे। इनके अतिरिक्त शेष जीव असंज्ञी कहलायेंगे। जो गर्भज, औपपातिक — देव, नारक मनपाप्ति से सम्पल है, वे संज्ञी कहलायेंगे। क्योंकि त्रैकालिक विषय सम्बन्धी चिन्ता, विमर्श आदि उन्हीं के सम्भव हो सकता है तथा जिन्हें मनोलब्धि प्राप्त नहीं है, उन्हें असंज्ञी कहते हैं ।
हेतुवादोपवेशिको की अपेक्षा- जो बुद्धिपूर्वक स्वदेहपालन के लिये इष्ट आहार आदि में प्रवृत्ति और अनिष्ट आहार आदि से निवृत्ति लेता है उसे हेतु उपदेश मे संज्ञी कहा जाता है, इसके विपरीत अरांजी । इस दृष्टि की अपेक्षा चार लस (द्वन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक) संज्ञी और पाँच स्थावर (पृथ्वी, जल, तेजस्, वायु और वनस्पतिकायिक) असंजी हैं। सारांश यह है कि जिन जीवों के बुद्धिपूर्वक इष्ट-अनिष्ट में प्रवृत्ति निवृत्ति होती है वे संज्ञी और जिन जीवों के बुद्धिपूर्वक इष्टअनिष्ट में प्रवृत्ति निवृत्ति नहीं होती है, वे असंज्ञी हैं
दृष्टिवादोपदेशिकी की अपेक्षा-दृष्टि नाम दर्शन ज्ञान का है । सम्यग्ज्ञान का नाम संज्ञा है । ऐसी संज्ञा जिसके हो वह संज्ञी कहलाता