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प्रथम कर्मग्रन्थ
है। ज्ञान जीव-आत्मा से कभी नहीं हटता है, सुषुपित अवस्था में भी जीव का स्वभाव होने से ज्ञान रहता ही है । अतः श्रुतज्ञान स्वयं ज्ञानात्मक है और ज्ञान जीव का स्वभाव होने के कारण श्रुतशान स्वयं अक्षर ही है। __ अक्षर के तीन भेद हैं- (१) संज्ञाक्षर, (२) व्यंजनाक्षर और (३) लब्ध्यक्षर ।'
संज्ञाक्षर-जिस आकृति, बनावट, संस्थान द्वारा यह जाना जाए कि यह अमुक अक्षर है, उसे संज्ञाक्षर कहते हैं। विश्व की विभिन्न लिपियों के अक्षर इसके उदाहरण हैं। वे अपनी आकृति द्वारा उन अक्षरों का बोध कराते हैं। जैसे-अ, आ, इ, ई, उ आदि ।
यजनाक्षर —जिससे अकार आदि अक्षरों के अर्थ का स्पष्ट बोध हो, उस प्रकार के उच्चारण को व्यंजनाक्षर कहते हैं, अर्थात् व्यंजनाक्षर केवल अक्षरों के उच्चारण का नाम है । व्यंजनाक्षर का उपयोग केवल बोलने में ही होता है।
लब्ध्यक्ष - शब्द को सुनकर या रूप को देखकर अर्थ का अनुभवपूर्वक पर्यालोचन करना लब्ध्यक्षर कहलाता है ।
संज्ञाक्षर और व्यंजनाक्षर से भावभुत पैदा होता है। इसलिए उन दोनों को द्रव्यश्रुत कहते हैं, क्योंकि अक्षर के उच्चारण से उसके अर्थ का बोध होता है और उसने भावश्रत उत्पन्न होता है और १. बलरसय तिविद पणते, नं जहा-मन्नवसर, बंजणवक्षरं, लद्धि अक्खरं ।
- नन्दीसूत्र ३८ २. रान्नक्खरं अक्सरस्स संठाणगिई ।
- नन्दीसूत्र ३८ ३. बंजणकावर अक्सस वंज्ञणाभिलायो ।
- नन्दीसूत्र ३८ ४. लाद्धअक्सरं- अक्ख रलशिवस्स नदिमाखरं समुपज्जइ । . . नन्दौसूत्र ३८