________________
३६
कर्मविपाक
लब्ध्यक्षर भावश्रुत है । कहा भी हैं - 'शब्दादिग्रहण समनन्तरमिन्द्रियमनोनिमित्तं शब्दार्थ पर्यालोचनानुसारि शंखोऽयमित्याद्यक्षरानुविद्ध ज्ञानमुपजायते इत्यर्थः ' - शब्द ग्रहण करने के पश्चात् इन्द्रिय और मन के निमित्त से जो शब्दार्थ पर्यालोचनानुसार ज्ञान उत्पन्न होता है, उसी को लब्ध्यक्षर कहते हैं ।
(२) अनक्षर' – जो शब्द अभिप्रायपूर्वक वर्णात्मक नहीं, बल्कि ध्वन्यात्मक किया जाता है, उसे अनक्षरश्रुत कहते हैं। छींकना, चुटकी बजाना, सिर हिलाना, इत्यादि संकेतों से दूसरों का अभिप्राय जानना इसके रूप हैं ।
+
(३) संजोत- जिन पंचेन्द्रिय जीवों के मन है, वे संज्ञी और उनका श्रुत संशश्रुत कहलाता है ।
संज्ञा के तीन भेद - (१) दीर्घकालिको, (२) हेतुवादोपदेशिकी और (3) दृष्टिवादोपदेशिकी हैं ।
अमुक काम कर चुका हूँ, अमुक काम कर रहा हूँ आर अमुक काम करूंगा इस प्रकार का भूत, वर्तमान और भविष्यत् का ज्ञान जिससे होता है, वह बोर्घकालिकी संज्ञा है । यह संज्ञा देव नारक तथा गर्भज तियंच एवं मनुष्यों को होती है ।
J
१. ऊस सियं नीस सियं निच्हं खासियं च दीयं च । निस्सिंधियमणुसारं अणक्वरं छेलियाईये ॥
अपने शरीर के पालन के लिए इष्ट वस्तु में प्रवृत्ति और अनिष्ट वस्तु से निवृत्ति के लिए उपयोगी सिर्फ वर्तमानकालिक ज्ञान जिससे होता है, वह हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा है। यह संज्ञा द्वीन्द्रिय आदि असंज्ञी जीवों के होती है ।
दृष्टिवादोपदेशको संज्ञा चतुर्दश पूर्वधर को होती है ।
नन्दीसूत्र, गाथा