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कर्मविपाक
(१) अक्षरश्रत, (२) अनक्षरश्रुत, (३) संजीधुत', (४) असंजीश्रुत, (५) सम्यकश्रुत, (६) मिथ्याश्रुत, (७) सादिश्रुत, (८) अनादिश्रुत, (६) सपर्यवसितश्रुत, (१०) अपर्यवसितत, (११) गमिकश्रुत, (१२) अगमिकश्रुत, (१३) अंगप्रविष्टश्रुत, (१४) अंगवा ह्यश्रुत ।'
श्रुतज्ञान के उक्त चौदह भेदों में से यद्यपि अक्षरश्रुत और अनक्षरश्रुत इन दो भेदों में शेष बारह भेदों का अन्तर्भाव हो जाता है लेकिन जिज्ञासुओं के दो प्रकार हैं-(१) व्युत्पन्नमति (प्रखरबुद्धि वाले) और (२) अव्युत्पन्नमति (मन्दबुद्धि वाले)। इनमें से प्रखरबुद्धि वाले तो अक्षरश्रुत और अनक्षरश्रुत इन दो भेदों के द्वारा ही श्रुतज्ञान के बारे में समझ लेते हैं और मन्दबुद्धि वाले अक्षरश्रुत और अनक्षरश्रुत इन दो भेदों के द्वारा शेष भेदों का वर्णन करने व समझने में समर्थ नहीं होते हैं । अतः उन्हें भी सरलता से बोध कराने की दृष्टि से शेष बारह भेदों का भी उल्लेख किया गया है ।
ध्रुतज्ञान के उक्त चौदह भेदों की व्याख्या इस प्रकार है
(१) अक्षरश्रुत-'क्षर संचलने' धातु से अक्षर शब्द बनता है। जैसे—'न क्षरति, न चलति इत्यक्षरम्' अर्थात् ज्ञान का नाम अक्षर है । ज्ञान जीव का स्वभाव है और कोई द्रव्य अपने स्वभाव से विचलित नहीं होता है। जीव भी एक द्रव्य है। ज्ञान उसका स्वभाव तथा गुण होने से वह जीव के अतिरिक्त अन्य किसी द्रव्य में नहीं पाया जाता
-.. -.. १. सुप्रमाणपरोक्त्रं चोददसधिहं पण्णनं, तं जहा-अक्खरसुयं, अणमखरस्यं,
सप्णिसुयं, असणिसुमं, सम्ममयं. मिच्छासुगं, साइयं, अगाइय, सपज्जबसियं, अपज्जवसियं, गमियं, अगभियं, अंगविलें, अणगप विट्ठ |
-नन्दीसूत्र ३७