Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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जैनदर्शन के अंगभूत कर्मवाद के व्याख्यान का मूलस्थान कौन-सा है ? इस विषय में जैन-कर्मदाद-विषयक साहित्य के व्याख्याता और प्रणेताओं का यह उत्तर है कि जैन-कमवाद-विषयक पदार्थों का मूलभूत विस्तृत और सम्पूर्ण व्याख्यान कर्मप्रवादपूर्व नामक महाशास्त्र में किया गया है। इस महाशास्त्र के आधार पर हमारा यह कर्मवाद का व्याख्यान, अन्य-रचना आदि है । यद्यपि यह मूल महाशास्त्र तो काल के प्रभाव से विस्मृति और विलुप्ति के गर्भ में चला गया है लेकिन आज हमारे समक्ष विद्यमान कमवाद-विषयवा साहित्य पूर्वोक्त महाशास्त्र के आशय के आधार पर निर्माण किया गया अंधारूप साहित्य है । उक्त महाशास्त्र की विस्मृति और अभाव में कर्म-साहित्य के निर्माताओं को कर्मवाद-विषयक कितनी ही वस्तुओं के व्याख्यान प्रसंग-प्रसंग पर छोड़ देने पड़े और कितनी ही वस्तुओं के विसंवादी प्रतीत होने वाले वर्णन श्रतुघरों पर छोड़ दिये गये हैं।
जैन-कर्मसाहित्य के प्रणेता
जैन-कमसिद्धान्त-विषयक माहित्य के पुरस्कर्ता आचार्य श्वेताम्बर और दिगम्बर–इन दो परम्पराओं में विभाजित हो गये हैं, फिर भी कर्मवाद का बाज्यान और वर्णन एक ही रूप में रहा । यही कारण है कि प्रत्येक तात्त्विक विषय में दोनों ही परम्पराएं समान तंत्रीय मानी जाती हैं। इस साहित्य की विशेषता के विषय में भी दोनों परम्पराएं समान स्तर पर हैं। इसके अतिरिक्त ग्रन्थकर्ताओं के क्षयोपशमानुसार ग्रन्थ-रचना और वस्तुबर्णन में सुगमता-दुर्गमता न्यूनाधिकता, विशदता-अभिशदता है और हो सकती है । लेकिन यथार्थ दृष्टि से देखने पर दोनों में से किसी के भी कर्मवाद-विषयक साहित्य का गौरव कम नहीं माना जा सकता है । अवसरानुसार जसा प्रत्येक विषय में होता है वैसा ही कर्मवाद-विषयक साहित्य में भी दोनों सम्प्रदायों ने एक दूसरे की वस्तु ली है, वर्णन की है और तुलजा भी की है। ऐसा करना यही सिद्ध करता है कि कर्मवाद-विषयक साहित्य में दोनों में से एक का गौरय कंग नहीं है । दोनों सम्प्रदायों में कर्मवाद-विषयक निष्णात अनेक आचार्य हुए हैं, जिनके वक्तव्य में कहीं भी स्खलाना नहीं आती है। क्रमप्रकृति, पंचसंग्रह जैसे समर्थ ग्रन्थ,