Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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प्रथम कर्मग्रन्थ
का भी श्रद्धान नहीं होता है। उस दशा में सिर्फ मूढ़ता होने से तत्त्व का अश्वद्धान होना कहते हैं। यह नैसर्गिक-परोपदेशनिरपेक्षस्वभाव से होने के कारण अनभिग्रहीत कहलाता है और जो किसी कारण के वश होकर एकात्तिक कदाग्रह होता है, उसे अभिगृहीत मिथ्यादर्शन कहते हैं।
अभिगृहीत मिथ्यादर्शन मनुष्य जैसे विकसित प्राणी में होना संभव है और दूसरा अनभिगृहीत मिथ्यादर्शन तो कीट-पतंग आदि जैसे अविकसित चेतना वाले प्राणियों में ही संभव है।
अविरति - दोषी-पापो से विरत न होना।
प्रमाद-आत्मविस्मरण होना, अर्थात् कुशल कार्यों में आदरभाव न रखना, वार्तव्य-अकर्तव्य की स्मृति के लिए सावधान न रहना । ____ कषाय-जो आत्मगुणों को करेनष्ट करे अथवा जो जन्म-मरणरूपी संसार को बढ़ावे । __ योग-मन-वचन-काया के व्यापार-प्रवृत्ति अर्थात् चलन-हलन को योग कहते हैं।'
यद्यपि ज्ञानावरणादिक कर्मों के विशेष बन्धहेतु भी बतलाये गये हैं, जिनका इसी ग्रन्थ में अन्यत्र उल्लेख भी किया गया है लेकिन मिथ्यात्वादि योगपर्यन्त ये पांचों समस्त कर्मों के सामान्य कारण कहलाते हैं। मिथ्यात्व से लेकर योग तक के इन पांचों बन्धहेतुओं में से जहाँ पूर्व-पूर्व के बन्धहेतु होंगे, वहाँ उसके बाद के सभी हेतु होंगे, ऐसा नियम है। जैसे मिथ्यात्व के होने पर अविरति से लेकर योग
१. कायवाङ्मनःकर्म योग: ।
–तत्वापंसूत्र, अ० ६, सूत्र १