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प्रथम कमग्नन्य
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वाली पुस्तकों के जानने वाले अवग्रह आदि क्रम से बहुविधग्राही अवग्रह आदि कहलाते हैं और आकार-प्रकार, रंग-5 आदि तथा मोटाई आदि में एक ही प्रकार की पुस्तकों के जानने वाले ये शान अल्पविधग्राही अवग्रह आदि कहलाते हैं ।
बहु और अल्प का तात्पर्य वस्तु की संख्या (गिनती) से और बहुविध तथा एकविध का तात्पर्य प्रकार, किस्म या जाति मे है। यही दोनों में अन्तर है।
क्षिप्र का अर्थ शीघ्र और अक्षिप्र का अर्थ विलम्ब-देरी है । शीघ्र जानने वाले अवग्रह आदि क्षिप्रग्राही अवग्रह आदि तथा विलम्ब से जानने वाले अभिप्रग्राही आदि कहलाते हैं।
अनिश्रित का अर्थ हेतु-चिह्न द्वारा असिद्ध और निश्रित का आशय हेतु द्वारा सिद्ध वस्तु मे है। जैसे ---पूर्व में अनुभूत शीतल, कोमल और स्निग्ध स्पर्शरूप हेतु से जही के फूलों को जानने वाले अवग्रह आदि चारों ज्ञान क्रमशः निश्रितग्राही अवग्रह आदि तथा उक्त हेतु के बिना ही उन फलों को जानने वाले अनिश्रितग्राही अवग्रह आदि कहलाते हैं।
ऊपर जो निधित और अनिश्रित शब्द का अर्थ बतलाया है, वह नन्दीसूत्र की टीका में भी है। इसके सिवाय उक्त सूत्र के टीकाकार आचार्य मलयगिरि ने एक दूसरा भी अर्थ बतलाया है-पर-धर्मों से मिश्रित-ग्रहण निश्रितावग्रह आदि और पर-धर्मों से अमिश्रितग्रहण अनिश्रितावग्रह आदि (आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित, पृष्ठ १८३)।
असंदिग्ध का अर्थ निश्चित और संदिग्ध का अर्थ अनिश्चित है । जैसे-यह चन्दन का ही स्पर्श है, फुल का नहीं; इस प्रकार से स्पर्श को निश्चित रूप से जानने वाले अवग्रह आदि चारों ज्ञान निश्चित