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कर्मविपाक
को विविधता से बारह-बारह प्रकार के होते हैं। उन बारह प्रकारों के नाम इस प्रकार हैं
(१) बहु, (२) अल्प, (3) बहुविध, (४) एकविध, (५) क्षिप्र, (६) अक्षित, (७) अनिश्रित, (८) निश्रित, (६) असंदिग्ध, (१०) संदिग्ध, (११) ध्रुव (१२) अध्रुव
बहु का आशय अनेक और अल्प का आशय एक है। जैसे दो या दो से अधिक पुस्तकों को जानने वाले अवग्रह, ईहा. आदि चारों क्रमभावी भतिज्ञान बहुप्राही अवग्रह, बहुग्राहिणी ईहा, बहुग्राही अवाय और बहुग्राहिणी धारणा कहलाते हैं और एक पुस्तक को जानने वाले अल्पग्राही अवग्रह आदि धारणापर्यन्त समझ लेना चाहिए ।
बहुविध का आशय अनेक प्रकार से और एकविध का अर्थ एक प्रकार से है । जैसे-आकार-प्रकार, रंग-रूप आदि विविधता रखने १. (क) चिहा उग्गहनती पण ता, तं जहा-विष्णमोगिहति बहुमोगिण्हति
बहुविध मोगिम्हति धुबमोगिति अणिस्सियभोगिरहद असंदिद्धमोगिण्हइ । छविहा ईहामती पण्णता, तं जहा-खिप्पमीहति पट्टमीहति जाव असंदिदमोहनि । छन्विहा अवायमती पणत्ता, तं जहा-खिप्पमवेति जाव असंदिदमवेति । छविहा धारणा पण्णता, तं जहाबहुंधारेइ, बहुविहंधारेइ, पोराणं घारेइ, दुद्धरं धारे, अग्णिस्सियं धारेच, असंदिद्धं धारेड। -स्थानांगसूत्र, स्थान ६, सू० ५१० तपा-जं बहु बहुविह खिया अणिस्सिय निच्छिय घुबेयरबिभिषा पुणरोगहादो तो तं तीसत्तिसय भेदं ।
–दति भासयारेग (इति भाष्यकारेण) (ख) बहुबहुविधक्षिप्रानिःसृतानुक्त ध्र बाणां सेतराणाम् ।
-तत्वार्थसूत्र, अ० १, सूत १६