Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्मविपाक
(असंदिग्ध! ग्राही अवग्रह आदि कहलाते हैं और यह नन्दन का स्पर्श होगा या फूल का, क्योंकि दोनों में शीतलता होती है, इस प्रकार विशेष की अनुपलब्धि के साथ होने वाले संदेहयुक्त ज्ञान अनिश्चित (संदिग्ध) नाही-अवग्रह आदि कहलाते हैं।
जैसा कि पहले ज्ञान हुआ था, वैसा ही पीछे भी होता है, उसमें कोई अन्तर नहीं आता, उसे ध्र वग्रहण और पहले तथा पीछे होने वाले ज्ञान में न्यूनाधिक रूप से अन्नर 'आ जाना अध्र वग्रहण कहलाता है। जैसे—कोई मनुष्य माधन-सामग्री आदि समान होने पर उस विषय को अवश्य जान लेता है और दूसग उसे कभी जानता है और कभी नहीं। सामग्री होने पर विषय को अवश्य जानने वाले अवग्रह आदि चारों ज्ञान ध्र वग्राही अवग्रह आदि कहलाते हैं और सामग्री होने पर भी क्षयोपशम की मंदता के कारण कभी ग्रहण करने वाले और कभी न करने वाले उक्त चारों ज्ञान अध्र वग्राही अवग्रह आदि कहलाते हैं ।
उक्त ब्रहू आदि बारह भेदों में से बहु, अल्प, बहुविध और अल्पविध ये चार भेद विषय की विविधता पर एवं क्षिप्र आदि शेष आठ भेद क्षयोपशम की विविधता पर आधारित हैं।
बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिश्रित, असंदिग्ध और ध्र ब इनमें विशिष्ट क्षयोपशम, उपयोग की एकाग्रता, अभ्यस्तता ये अंतरंग असाधारण कारण हैं और अल्प, अल्पविध, अक्षिप्र, निश्चित, संदिग्ध और अध्रुवइनसे होने वाले ज्ञान में क्षयोपशम की मंदता, उपयोग की विक्षिप्तता, अनभ्यस्तता ये अन्तरंग असाधारण कारण हैं । __व्यंजनावग्रह के चार और अर्थावग्रह आदि के चौबीस भेदों को बहुआदि बारह भेदों से गुणा करने पर ३३६ भेद होते हैं, यथा- अर्थावग्रह, ईहा, अवाय और धारणा इन चारों में से प्रत्येक के पाँच इन्द्रियों और मन से होने के कारण चौबीस भेद बनते हैं और इन चौबीस का